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________________ ३२५ -का० ५५. ३१९] जैनमतम् । कीय॑न्त इत्यादि । अत्रोदाहरणम् -पेरिणामी शब्दः कृतकत्वात्, यः कृतकः स परिणामी दृष्टो यथा घटः, कृतकश्चायम् तस्मात्परिणामी । यस्तु न परिणामी स न कृतको दृष्टः, यथा वन्ध्यास्तनन्धयः। कृतकश्चायम् तस्मात्परिणामी इत्यादि। $३१९. नन्वत्र निश्चितान्यथानुपपत्तिरेवैकं हेतोर्लक्षणमभ्यधायि कि न पक्षधर्मत्वादित्रैरूप्यमिति चेत्, उच्यते; पक्षधर्मत्वादी रूप्ये सत्यपि तत्पुत्रत्वादेहेतोर्गमकत्वादर्शनात् , असत्यपि च त्रैरूप्ये हेतोगमकत्वदर्शनात्, तथाहि-जलचन्द्रात् नभश्चन्द्रः, कृतिकोदयात् शकटोदयः, पुष्पित. होते हैं परन्तु मोटी बुद्धिवाले मन्द शिष्योंको समझानेके लिए दृष्टान्त, उपनय और निगमन इन तीन अवयवोंका भी प्रयोग कर सकते हैं । दृष्टान्त दो प्रकारका है-१-अन्वय दृष्टान्त, २ व्यति. रेक दृष्टान्त । जहां साधनकी सत्तामें नियत रूपसे अवश्य ही साध्यकी सत्ता दिखायी जाय वह अन्वय दृष्टान्त है । जहाँ साध्यके अभावमें नियमसे साधनका अभाव बताया जाय वह व्यतिरेक दृष्टान्त है । दृष्टान्तका कथन करके पक्ष में हेतुकी सत्ताके दुहरानेको उपनय कहते हैं। पक्षमें हेतुकी सत्ताका उपसंहार करके साध्यके सद्भावको दुहराना निगमन कहलाता है। ये पक्ष, हेतु दृष्टान्त, उपनय और निगमन 'पंचावयव' कहे जाते हैं। जैसे, शब्द परिवर्तनशील है, परिणामी है, क्योंकि वह उच्चारणसे उत्पन्न किया गया है, कृतक है, जो कृतक होते हैं वे परिणामी होते हैं जैसे घड़ा, चूंकि यह शब्द भी कृतक है, अतः उसे परिणामी होना ही चाहिए, जो परिणामी नहीं होते वे कृतक भी नहीं होते जैसे वन्ध्याका लड़का, चूंकि शब्द कृतक है, अतः वह परिणामी होगा ही। ... ३१९. शंका-आपने एकमात्र अविनाभावको ही हेतुका लक्षण माना है। पर हेतुके लक्षणमें तो 'पक्षमें रहना, सपक्षमें रहना तथा विपक्षमें नहीं रहना' इन तीन रूपोंका भी विशिष्ट स्थान है अतः इन्हें लक्षणमें शामिल क्यों नहीं किया ? ___समाधान-त्ररूप्य हेतुका अव्यभिचारी लक्षण नहीं है। 'गर्भ में रहनेवाला मैत्रका लड़का साँवला है क्योंकि वह मैत्रका लड़का है जैसे कि उसके पांच सांवले लड़के' इस मैत्रतनयत्व हेतुमें त्ररूप्य पाया जाता है फिर भी यह सच्चा हेतु नहीं है, क्योंकि मैत्रतनयत्वका सांवलेपनसे कोई अविनाभाव नहीं । त्रैरूप्यके न होनेपर भी केवल अविनाभाव मात्रसे अनेकों हेतु अपने साध्यका १. "परिणामो शब्दः, कृतकत्वात्।"-परीक्षामु. ३।६५ । प्रमाणनय. ३१.३। २. -णामी शब्द इत्यादि आ., क. । ३."त्रैरूप्यं पुलिङ्गस्यानुमेये सत्त्वमेव, सपक्ष एव सत्त्वम्, असपक्षे चासत्वमेव निश्चितम् ।" -न्यायवि. १५ । ४. "न च सपक्षे सत्त्वं पक्षधर्मत्वं विपक्षे चासत्त्वमात्र साधनलक्षणम्, स श्यामः तत्पुत्रत्वात इतरतत्पुत्रवदित्यत्र साधनाभासे तत्सदभावसिद्धः। सपक्षे हीतरत्र तत्पुत्रे तत्पुत्रत्वस्य साधनस्य श्यामत्वव्याप्तस्य सत्त्वं प्रसिद्धम्, विवादाध्यासिते च तत्पुत्रे पक्षीकृते तत्पुत्रत्वस्य सद्भावात् पक्षधर्मत्वम्, विपक्षे वाश्याम क्वचिदन्यपुत्रे तत्परत्वस्याभावात विपक्षेऽसत्त्वमात्रं च । न च तावता साध्यसाधनत्वं साधनस्य ।"-प्रमाणप. पू. ७०। न्यायकुमु. पृ. ४४०। सन्मति. टी. पृ. १९ । स्या. र. प. ५१८ । प्रमेयर. ३॥१५ । प्रमाणमी. पृ.१०। ५. "तत्सद्भावे पक्षधर्मत्वाद्यभावेऽपि साधनस्य सम्यक्त्वप्रतीतेः उदेष्यति शकटं कृतिकोदयादित्यस्य पक्षधर्मत्वाभावेऽपि प्रयोजकत्वव्यवस्थितेः।"-प्रमाणप. पू...। "तस्मात्प्रतीतिमाश्रित्य हेतुं गमकमिच्छता। पक्षधर्मस्वशून्योऽस्तु गमकः कृत्तिकोदयः ॥ पल्वलोदकनर्मल्यं तदागस्त्युदये स च । तत्र हेतुः सुनिर्णीतः पूर्व शरदि सन्मतः॥ चन्द्रादी जलचन्द्रादि सोऽपि तत्र तथाविधः । छायादिपादपादौ च सोऽपि तत्र कदाचन ॥"-तरवार्थश्लो. पृ. २०१। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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