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-का० ५५१३१६] जैनमतम् ।
३२१ ६३१५. अत्र च पूर्वपूर्वस्य प्रमाणतोत्तरोत्तरस्य च फलतेत्येकस्यापि मतिज्ञानस्य चातुविध्यं कथंचित् प्रमाणफलभेदश्चोपपन्नः। तथा यद्यपि क्रमभाविनामवग्रहादीनां हेतुफलतया व्यवस्थितानां पर्यायार्थाभेदः तथाप्येकजीवतादात्म्येन द्रव्यादेशादमीषामैक्यं कथंचिदविरुद्धम्, अन्यथा हेतुफलभावाभावप्रसक्तिर्भवेदिति प्रत्येयम्।
६३१६. धोरणास्वरूपा च मतिरविसंवादस्वरूपस्मृतिफलस्य हेतुत्वात्प्रमाणं, स्मृतिरपि तथाभूतप्रत्यवमर्शस्वभावसंज्ञाफलजनकत्वात्, संज्ञापि तथाभूततर्कस्वभावचिन्ताफलजनकत्वात्, चिन्ताप्यनुमानलक्षणाभिनिबोधफलजनकत्वात्, सोऽपि हानादिबुद्धिजनकत्वात्। तदुक्तम्"मतिः स्मृतिः संज्ञा चिन्ताभिनिबोध इत्यनान्तरम् ।" [त. सू. १११३ ] अनन्तरमितिकथंचिदेकविषयं प्राकशब्दयोजनान्मतिज्ञानमेतत् । शेषमनेकप्रभेदं शब्दयोजनादुपजायमानमविशदं'
$३१५. इन अवग्रहादि ज्ञानोंमें पहले-पहलेके ज्ञान उत्तरोत्तर ज्ञानोंमें कारण होनेसे प्रमाण रूप हैं तथा आगे-आगेके ज्ञान कार्य होनेसे फलरूप हैं। अवग्रह प्रमाण है तो ईहा फल, ईहाकी प्रमाणतामें वस्तुतः यह एक ही मतिज्ञान है परन्तु अवाय फल होता है। पर्याय भेदसे उसके ही ये चार रूप हो जाते हैं और इनमें परस्पर प्रमाण और फलरूपसे कथंचिद् भेद भी हो जाता है । इस तरह यद्यपि क्रमसे उत्पन्न होनेवाले इन अवग्रह आदि चारों ज्ञानोंमें, जो कि क्रमशः कारण कार्य रूप हैं, पर्यायार्थिक अवस्थाओंके भेदसे भेद है परन्तु ये सभी ज्ञान एक आत्मासे तादात्म्य अभेद रखते हैं अतः उस आधारभूत आत्मद्रव्यकी अपेक्षासे ये सभी ज्ञान कथंचिद् अभिन्न भी हैं। यदि इनमें आत्मद्रव्यकी अपेक्षा कथंचिदेकता तथा अवस्था भेदसे अनेकता न हो तो इनमें परस्पर उपादान-उपादेयभाव या कार्यकारणभाव नहीं बन सकेगा। कार्य और कारण ये दो अवस्था भेद होनेपर ही हो सकते हैं तथा उपादान-उपादेय भावके लिए एक द्रव्यात्मक होना आवश्यक ही है।
६३१६. धारणा नामका मतिज्ञान अविसंवादी स्मरणमें कारण होता है अतः वह प्रमाण है तथा स्मरण फल है। स्मरणसे 'यह वही है' इत्यादि संकलन रूप संज्ञा-प्रत्यभिज्ञान उत्पन्न होता है अतः प्रत्यभिज्ञान फल है और स्मरण प्रमाण। प्रत्यभिज्ञान भी अविनाभावको ग्रहण करनेवाले तर्क रूप चिन्ताको. उत्पन्न करता है अतः वह प्रमाण है तथा तर्क फल। तकसे अविनाभावका परिज्ञान कर अभिनिबोध-अनुमान ज्ञान उत्पन्न होता है अतः तर्क प्रमाण है तथा अनुमान फल । अनुमानसे हेयोपादेय बुद्धि रूप फल उत्पन्न होता है अतः अनुमान भी प्रमाणरूप है। कहा भी है-"मति, स्मृति, संज्ञा, चिन्ता और अभिनिबोध ये अनर्थान्तर हैं। कथंचिद् अभिन्न हैं" अनर्थान्तर-कथंचिद् एकविषयक । अकलंकदेव इस सूत्रका निम्न तात्पर्य बताते हैं. जबतक इन ज्ञानोंका शब्द रूपसे उल्लेख नहीं किया जाता, इनमें शब्द योजना नहीं होती तबतक ये सब मतिज्ञान रूप हैं। शब्द योजनासे उत्पन्न होनेवाला अनेक प्रकारका अविशद ज्ञान
१. “पूर्वपूर्वप्रमाणत्वं फलं स्यादुत्तरोत्तरम् । प्रमाणफलयोः क्रमभेदेऽपि तादात्म्यमभिन्नविषयत्वं च प्रत्येयम् ।"-लघी. स्व. श्लो. ७ । “पूर्वपूर्वप्रमाणमुत्तरोत्तरं फलमिति क्रमः।"-प्रमाणवार्तिकालं. ३।३१०। “तथा पूर्व पूर्व प्रमाणमुत्तरमुत्तरं फलमिति ।"-न्यायवि. टी. टि. पृ. ४० । सन्मति. टी. पृ. ५५३ । “अवग्रहादीनां क्रमोपजनधर्माणां पूर्व पूर्व प्रमाणमुत्तरमुत्तरं फलम् ।" -प्रमाणमी. ११११३९ । २. "अविसंवादस्मृतेः फलस्य हेतुत्वात् प्रमाणं धारणा । स्मृतिः संज्ञायाः प्रत्यवमर्शस्य । संज्ञा चिन्तायाः तस्य । चिन्ता अभिनिबोधस्य अनुमानादेः।"-लघी. स्ववृ. इलो. ११। सन्मति. टी. ५५५। ३. -दं श्रुत-भ. २।
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