________________
-का. ५५.६३०८]
जैनमतम् । प्रत्यक्षेणैव घटादिविविक्तस्य भूतलावर्ग्रहणात् । क्वचित्तु तदघटं भूतलमिति प्रत्यभिज्ञानेन, योऽग्निमान्न भवति नासौ धूमवानिति तर्केण, नात्र धूमोऽनाग्नेरित्यनुमानेन, गृहे गर्गो नास्तीत्यागमेन 'वाभावप्रतीतेः काभावःप्रमाणं प्रवर्तताम् । तृतीयपक्षस्य पुनरसंभव एव, आत्मनो ज्ञानाभावे कथं वस्त्वभाववेदकत्वं, वेदनस्य ज्ञानधर्मत्वात्, अभाववेदकत्वे वा ज्ञानविनिर्मुक्तत्वस्याभावात्, तन्नाभावः प्रमाणान्तरम् ।
६३०८. "संभवोऽपि समुदायेन समुदायिनोऽत्रगम इत्येवंलक्षणः संभवति खायर्या द्रोण जो स्वयं गधेके सींगकी तरह अवस्तु है वह अभावज्ञान रूप कार्य कैसे कर सकता है ? द्वितीय पक्षमें तो पर्युदास पक्षके अनुसार घड़ेसे अन्य भूतल आदिका ज्ञान प्रत्यक्षसे ही हो रहा है, वह प्रत्यक्षरूप हो है । जब प्रत्यक्षसे ही घड़ेसे रहित शुद्ध भूतलका परिज्ञान हो जाता है तब उससे अतिरिक्त अभाव प्रमाणको क्या आवश्यकता है। कहींपर 'यह वही भूतल आज घड़ेसे शून्य है जिसमें कल घड़ा रखा था' इस प्रकारका अभावज्ञान प्रत्यभिज्ञानसे हो जाता है। कहीं 'जो अग्निवाला नहीं है वह धूमवाला भी नहीं है' यह सार्वत्रिक अग्नि और धूमके अभावका ज्ञान तर्कसे होता है। कहीं 'यहां धूम नहीं है क्योंकि अग्नि नहीं पायी जाती' यह धूमके अभावका ज्ञान अनुमानसे हो रहा है। कहीं 'गर्ग घरमें नहीं है' इस प्रामाणिक वाक्यसे घरमें गर्गके अभावका ज्ञान आगम प्रमाणरूप ही है। इस तरह यथासम्भव प्रत्यक्षादि प्रमाणोंसे हो जब अभावका ज्ञान हो जाता है तब अभाव प्रमाणको क्या आवश्यकता है ? वह कहाँ प्रवृत्ति करेगा? अभावका ज्ञाननिर्मुक्त आत्मावाला प्रकार तो बन ही नहीं सकता; क्योंकि जब आत्मामें बिलकुल ही किसी प्रकारका ज्ञान नहीं रहेगा, तब वस्तुके अभावका परिज्ञान किससे होगा? अभाव हो या सद्भाव, दोनोंका जानना तो ज्ञानका ही कार्य है। यदि आत्मा अभावको जान रहा है तो फिर उसे ज्ञान निर्मक्त-ज्ञान शन्य कैसे कह सकते हैं? इस तरह अभाव प्रमाण स्वतन्त्र प्रमाण नहीं है. वह यथासम्भव इन्हीं प्रत्यक्षादिमें अन्तर्भूत है ।
६३०८. समदायसे समदायीका ज्ञान सम्भव प्रमाण है। बडी चीजसे अपने अवयवभत किसी छोटी वस्तुका अनुमान सम्भव प्रमाण है। जैसे खारी ( = १८ द्रोण ) में द्रोणको सम्भावना
-प्रश. व्यो. पृ. ५९२ । प्रश. कन्द. पृ. २२६ । “शब्दे ऐतिह्यानर्थान्तरभावात् अनुमानेऽपित्तिसंभवाभावानान्तरभावाच्चाप्रतिषेधः।" -न्यायसू. २।२।६। "अभावोऽप्यनुमानमेव"-न्यायवा. पृ. २७६ । "सत्यमभावः प्रमेयमभ्युपगम्यते प्रत्यक्षाद्यवसीयमानस्वरूपत्वान्न प्रमाणान्तरमात्मपरिच्छित्तये मृगयते । अदूरमेदिनिदेशवर्तिनस्तस्य चक्षुषा । परिच्छेदः परोक्षस्य क्वचिन्मानान्तरैरपि ॥"
-न्यायमं. पृ. ५१। “अन्यस्य घटादिविविक्तस्य भूतलस्योपलब्ध्या घटानुपलब्धिरिति प्रत्यक्षसिद्धानुपलब्धिः । एतदुक्तं भवति-घटग्राहकत्वस्य भूतल ग्राहकत्वस्य चैकज्ञानसंसगित्वात् यदा भूतलग्राहकमेव तज्ज्ञानं भवति तदा घटग्राहकत्वाभावं निश्चाययतीति प्रतीति प्रत्यक्षसिद्धव घटानुपलब्धिः।" प्रमाणवा. स्व. टी. १६ । तत्वसं. पृ. ४७५ । तत्त्वार्थश्लो. पृ. १८२ । न्यायकुमु. पृ. ४६८ । त्या. र. पृ. ३१० न्यायाव. टी. टि. प.२१। । १. तत्प्रत्य-भ.२। २. "अभावोऽप्यनुमानमेव, यथा उत्पन्न कार्य कारणसद्भावे लिङ्गम्, एवमनुत्पन्न कार्य कारणासद्भावे लिङ्गम् ।"-प्रश. मा., कन्द. प. २०५। “कश्चित्सुन्नरसंनिकृष्टदेशवृत्तिरनुमेयोऽपि भवत्यभावः ।" -न्यायम. प्र. ५४ । न्यायकुमु. प. ४६९ । ३. चाभाव-भ. २ । ४. वस्तुभा-म. २। ५. "संभवोऽप्यविनाभाविस्वादनुमानमेव" -प्रश. मा., कन्द. पृ. २२५ । "संभवो नाम अविनाभाविनोऽर्थस्य सत्ताग्रहणादन्यस्य सत्ताग्रहणं यथा-द्रोणस्य सत्ताग्रहणादाढकस्य सत्ताग्रहणम्, आढकस्य ग्रहणात् प्रस्थस्येति ।" -यायभा. २।२।।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org