SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 342
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३१६ षड्दर्शनसमुच्चये [ का० ५५. ६३०६६३०६. अर्थापत्तिरपि____ "प्रमाणषट्कविज्ञातो यत्रार्थोऽनन्यथा भवन् । अदृष्टं कल्पयेदन्यं सार्थापत्तिरुदाहृता ।" [ मी. श्लो. अर्था. श्लो. १] इत्येवंलक्षणा अनुमानान्तर्गतैव, अर्थापत्त्युत्थापकस्यार्थस्यान्यथानुपपत्तिनिश्चयेनैवादृष्टार्थपरिकल्पनात्, अन्यथानुपपत्तिनिश्चयस्यानुमानत्वात्। .. ६३०७. अभावाख्यं तु प्रमाणं प्रमाणपञ्चकाभावः, तदन्यज्ञानम्, आत्मा वा ज्ञानविनिर्मुक्तः इति त्रिधाभिधीयते , तत्राद्यपक्षस्यासंभव एव; प्रसज्यवृत्त्या प्रमाणपञ्चकाभावस्य तुच्छत्वेना. वस्तुत्वात्, अभावज्ञानजनकत्वायोगात्। द्वितीयपक्षे तु पर्युदासवृत्त्या यत्तदन्यज्ञानं तत्प्रत्यक्षमेव, ३०६. प्रत्यक्षादि छहमें-से किसी एक भी प्रमाणसे जाने गये किसी भी पदार्थसे अविनाभावी परोक्ष पदार्थकी कल्पना करना अर्थापत्ति कही जाती है। यह अर्थापत्ति अनुमानस्वरूप ही है अतः इसका अनुमानमें ही अन्तर्भाव कर लेना चाहिए। जिस प्रकार अनुमानमें लिंगसे अविनाभावी परोक्ष साध्यका ज्ञान होता है उसी तरह अापत्तिमें भी एक अविनाभावी परोक्ष पदार्थकी ही कल्पना की जाती है। दोनोंमें अविनाभावके बलसे ही अन्य परोक्ष पदार्थका अटकल लगाया जाता है। जहां भी अविनाभावसे अन्य पदार्थका ज्ञान होता है वह सब अनुमानरूप ही तो है। ६३०७. अभाव प्रमाणके तीन रूप होते हैं-(१) जिस पदार्थका अभाव करना है उसकी सत्ताको साधनेवाले प्रत्यक्षादि पांच प्रमाणोंका नहीं मिलना अर्थात् प्रमाणपंचकाभाव । (२) अथवा जिस आधारमें या जिस पदार्थके साथ उसे देखा था, केवल उसी आधार या पदार्थका परिज्ञान होना, जिसका अभाव करना है उससे भिन्न वस्तुका ज्ञान होना, जैसे घड़ेको भूतलमें या भूतलके साथ देखा था, अब यदि केवल भूतल ही दिखाई देता है तो घड़ेका अभाव हो जायगा । (३) अथवा आत्मामें ज्ञान ही उत्पन्न न हो। जब घड़ेका ज्ञान ही उत्पन्न न होगा तब उसका सद्भाव न होकर अभाव ही सिद्ध होगा। इनमें प्रथम पक्ष तो बन ही नहीं सकता. क्योंकि प्रमाण पंचकका अभाव प्रसज्यपक्षमें तुच्छरूप होनेसे जब अवस्तु रूप ही पड़ेगा तब वह अभावविषयक ज्ञान उत्पन्न नहीं कर सकता। जो वस्तुरूप होता है वही ज्ञान उत्पन्न कर सकता है। १. "अर्थापत्तिरपि दृष्टः श्रुतो वार्थोऽन्यथा नोपपद्यते-इत्यर्थकल्पना, यथा जीवति देवदत्ते गृहाभावदर्शनेन बहिर्भावस्यादृष्टस्य कल्पना ।"-शाबरमा. १।१५। प्रकरणप. पु. ११३ । शास्त्रदी. पृ. २१०। नयवि. प. १५२। तन्त्ररह. प्र. १३ । प्रमाकरवि. प. .३। २. "शब्दादीनामप्यनुमानेऽन्तर्भावः समानविधित्वात्"-प्रश. मा., कन्द. पृ. २१३। "शब्द ऐतिह्यानन्तरभावाद अनुमानेऽर्यापत्तिसंभवानर्थान्तरभावाच्चाप्रतिषेधः।"-न्यायसू. २।२।२। ".."प्रत्यक्षेणाप्रत्यक्षस्य संबद्धस्य प्रतिपत्तिरनुमानं तथा चार्थापत्तिसंभवाभावाः । वाक्यार्थसंप्रत्ययेनानभिहितस्यार्थस्य प्रत्यनीकभावाद् ग्रहणमपत्तिरनुमानमेव ।"-न्यायमा. २।२।२। न्यायवा. पू. २७६ । न्यायली. पृ. ५७। न्यायकुमु. ३।१९। तत्त्वार्थश्लो. पृ. २१७। प्रमेयक. प. १९३ । न्यायकुमु. पृ. ५३ । सन्मति. टी. पृ. ५८५ । जैनतर्कवा. प. ७७ । स्या. र. प. २०३। रस्नाकराव. ।। "दर्शनार्थादर्थापत्तिविरोध्येव श्रवणादनुमितानुमानम् ।" -प्रश. मा, कन्द. पृ. २२३ । ३. "प्रत्यक्षादेरनुत्पत्तिः प्रमाणाभाव उच्यते। सात्मनोऽपरिणामो वा विज्ञानं वान्यवस्तुनि ॥" -मी. इलो. अमाव. श्लोक. ११। ४. यत्तदन्यज्ज्ञा-आ., क.। ५. "अभावोऽप्यनुमानमेव, यथोत्पन्न कार्य कारणसभावे लिङ्गम्, एवमनुत्पन्न कार्य कारणसद्भावे लिङ्गम् ।"-प्रश. मा. पृ. ५७७ । तुलना-"प्रत्यादिनैवाभावस्य प्रतीतेः, तथा चाक्षव्यापारादिह भूतले घटो नास्तीति ज्ञानमपरोक्षमुत्पद्यमानं दृष्टम् ।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy