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________________ -का०५५.६३०५] जैनमतम् । ३१५ गवयशब्दवाच्यमर्थमजानानः कश्चन वनेचरं पुरुषमप्राक्षीत् । 'कोहग् गवयः' इति, स प्राह 'यादृग्गीतादृग्गवयः' इति । ततस्तस्य प्रेष्यपुरुषस्याप्तातिदेशवाक्याथेस्मरणसहकारि गोसदृशगवयपिण्डज्ञानं 'अयं स गवयशब्दवाच्योऽर्थः' इति प्रतिपत्ति फलरूपामुत्पादेयत्प्रमाणमिति । ३०४. मीमांस कमते तु येन प्रतिपत्रा गोरुपलब्धो न गवयो न चातिदेशवाक्यं 'गौरिव गवयः' इति श्रुतं, तस्य विकटाटवी पर्यटतो गवयदर्शने प्रथमे समुत्पन्ने सति यत्परोक्षे गवि सादृश्यज्ञानमुन्मज्जति 'अनेन सदृशः स गौः' इति तस्य गोरनेन सादृश्य' इति वा, तदुपमानम् । ६३०५. तस्माद्यत्स्मयंते तत्स्यात्सादश्येन विशेषितम् । प्रमेयमुपमानस्य सादृश्यं वा तदन्वितम् ॥ [ मी. श्लो. उप. श्लो. २ ] । इति वचनादिति । एतच्चै परोक्षभेवे प्रत्यभिज्ञायामन्तर्भाव्यम् ॥ गवयको जानता ही न था। उसने डरके मारे राजासे गवयकी पहचान नहीं पूछी और वह चुपचाप जंगलकी ओर चला। रास्ते में एक भीलसे पूछा कि भाई, गवय कैसा होता है ? भील बोला-'अरे तुम इतना ही नहीं जानते, जैसी गइया होती है ठीक वैसा ही गवय होता है।' नौकर उस भीलके वचनोंको याद करता हुआ जंगलमें जा पहुँचता है और वहां भोलके वचनोंको याद करके सामने एक गायके समान अवयववाले प्राणीको देखते ही 'यहो गवय है, इसे हो गवय शब्दसे पुकारते हैं' इस उपमितिको उत्पन्न करता है। इसमें 'गायके समान गवय होता है' इस अतिदेश वाक्यके स्मरणके साथ ही साथ गो सदृश गवयका ज्ञान भी कारण होता है अतः यही गो सदृश गवयका ज्ञान अर्थात् सादृश्य-ज्ञान उपमान प्रमाण कहलाता है । तात्पर्य यह कि सादृश्य-ज्ञान तो उपमान प्रमाण है तथा 'इसकी गवय-संज्ञा है' यह संज्ञा संज्ञि सम्बन्ध ज्ञान उपसमितिरूप फल है। ६३०४. मीमांसक उपमानका स्वरूप इस प्रकार कहते हैं-जिस व्यक्तिने गायको तो देखा है पर गवयको अभी तक नहीं देखा और न 'गायके समान गवय होता है' इस अतिदेश वाक्यपरिचय वाक्यको ही सुना है। वह विकट जंगलमें घूमते-घूमते अचानक पहले ही पहले गवयको देखता है । गवयको देखते हो उसे परोक्ष गौका स्मरण हो आता है और वह सोचता है कि 'गाय तो ठीक इसी गवयके समान होती है' 'उस गोमें इस गवयको बड़ी सदृशता है' इस तरह परोक्ष गौमें जो सादृश्य ज्ञान उत्पन्न होता है उसे उपमान कहते हैं। कहा भी है-“गवयको देखकर जिस गायका स्मरण होता है वही गाय गवयकी समानतासे विशिष्ट होकर उपमान प्रमाणके द्वारा जानी जाती है। अथवा गायसे विशिष्ट गवयकी समानता उपमान प्रमाणका विषय होती है। गोविशिष्ट सादृश्य या सादृश्यविशिष्ट गौ दोनों ही उपमान प्रमाणके प्रमेय हैं।" ३०५. ये दोनों ही प्रकारके उपमान प्रत्यभिज्ञान नामक परोक्ष प्रमाणमें अन्तर्भूत हो जाते हैं। दोनों हो उपमानोंमें गवयका प्रत्यक्ष तथा अतिदेश वाक्य या गायका ही स्मरण कारण होता है और सादृश्यरूपसे उनका संकलन किया जाता है अतः प्रत्यक्ष और स्मरणसे उत्पन्न होनेवाले तथा सादृश्यको संकलित करनेवाले सादृश्य प्रत्यभिज्ञानमें ही इनका अन्तर्भाव हो जाता है। प्रत्यक्ष और स्मरणसे उत्पन्न होनेवाले एकत्व सादृश्य विलक्षणता आपेक्षिक आदि रूपसे जितने भी संकलन ज्ञान होते हैं वे सभी प्रत्यभिज्ञानरूप ही हैं। १. इति तस्य प्रेष्य-म. २। २. -दयतः प्रमा-म. २। ३. “ततो यः संकलनात्मकः प्रत्ययः स प्रत्यभिज्ञानमेव यथा 'स एवायम्' इति प्रत्ययः संकलनात्मकश्च 'अनेन सदृशो गौः' इति प्रत्यय इति ।" -न्यायकुम. पू. १९४ । "आप्तेनाप्रसिद्धस्य गवयस्य गवा गवयप्रतिपादनापमानमाप्तवचनमेव ।" -प्रश. मा., कन्द. पृ. २२० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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