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________________ ३१८ षड्दर्शनसमुच्चये इत्यादिको नानुमानात्पृथक् तथाहि -खारी द्रोणवती, खारीत्वात्पूर्वोपलब्धखारीवत् । · ३०९. 'ऐतिह्यं त्वनिर्दिष्टप्रवक्तृकं प्रवादपारंपर्यम्, एवमूचुर्वृद्धा यथा 'इह वटे यक्षः प्रतिवसति' इति, तदप्रमाणं, अनिर्दिष्टवक्तृकत्वेन सांशयिकत्वात्, आप्तप्रवक्तृकत्वनिश्चये त्वागम इति । ३१०. यदपि प्रातिभमक्ष लिङ्गशब्दव्यापारानपेक्षमकस्मादेव 'अद्य मे महीपतिप्रसादो भविता' इत्याकारं स्पष्टतया वेदनमुदयते तदप्यनिन्द्रियनिबन्धनतया मानसमिति - प्रत्यक्ष कुक्षिनि क्षिप्तमेव । ३११. यत्पुनः प्रियाप्रियप्राप्तिप्रभृतिफलेन सार्धं गृहीतान्यथानुपपत्तिकात्मनः प्रसादोद्वेगादलिङ्गादुदेति तत्पिपीलिकापटलोत्सर्पणोत्थज्ञानवदस्पष्टमनुमानमेव । $ ३१२. एवं युक्त्यनुपलब्ध्योरादिशब्दा द्विशिष्टोपलब्धिजनकस्य बोधाबोधरूपविशेषत्यागेन है वह उसमें समा जाना ही है। यह पूरी सम्भावना है क्योंकि वह खारी है [ का० ५५ 8३०९ 'अनुमानमें ही अन्तर्भूत है । इस खारीमें द्रोणकी पूरीजैसे कि पहले देखी गयी खारी । $ ३०९. जिनके कहनेवालोंका कुछ भी पता न हो ऐसे परम्परासे चले आये प्रवादजनश्रुतियां ऐतिह्य हैं। जैसे - बूढ़े - पुराने लोग कहते थे कि 'इस वट वृक्षमें एक यक्ष रहता है' । यह ज्ञान प्रमाणभूत ही नहीं है, क्योंकि इसके वक्ताका पता न होनेसे यह निश्चित नहीं है सन्दिग्ध है, मुमकिन है कि उसमें यक्ष न रहता हो । जिन प्रवादोंके वक्ता तथा उनकी प्रामाणिकता निश्चित है वे तो आगमप्रमाण में ही अन्तर्भूत हो जायेंगे । 1 $ ३१०. इन्द्रियाँ लिंग तथा शब्दके व्यापारके बिना ही अचानक 'आज मुझपर राजां प्रसन्न होंगे' इत्यादि प्रकारके स्पष्ट भानको प्रातिभ ज्ञान कहते हैं । यह ज्ञान मनोभावनासे उत्पन्न होने के कारण मानस प्रत्यक्ष में अन्तर्भूत हो जाता है । ३११. जिस प्रातिभ ज्ञानमें मनकी सहज प्रसन्नतासे या मनकी उद्विग्नता - उचाट रहने से इष्ट-अनिष्टका अस्पष्ट भान होता है वह तो अनुमान रूप ही है । जैसे चींटियोंको अण्डे लेकर जाते हुए देखकर वृष्टि होने का अनुमान । तात्पर्य यह कि मनमें सहज उल्लास होनेसे पहले कई बार इष्टकी प्राप्ति हो चुकी थी इसी तरह मनके उचाट रहनेसे अनिष्ट भी हुआ था। आज यदि सहसा मनमें प्रसन्नता होती है और उससे हृदय अपने-आप कहे कि 'आज कुछ लाभ होगा' तो यह अस्पष्ट ज्ञान एक प्रकारका अनुमान ही है । क्योंकि मनकी प्रसन्नता आदिका इष्ट प्राप्ति आदिसे अविनाभाव पहले ही ग्रहण किया जा चुका है और अविनाभावजन्य ज्ञान तो अनुमानरूप हो होता है । ६ ३१२. इसी तरह युक्ति और अनुपलब्धि इन्हीं प्रमाणों में अन्तर्भाव कर लेना चाहिए । युक्ति यदि अविनाभाव रखता है तो अनुमानमें अन्तर्भूत होगी। यदि अविनाभाव नहीं है तो प्रमाण Jain Education International १. "ऐतिह्यमर्थापत्तिः संभवोऽभाव इत्येतान्यपि प्रमाणानि तानि कस्मान्नोक्तानि । 'इति होचुः' इत्यनिदिष्टप्रवक्तृकं — प्रवादपारंपर्यम् ऐतिह्यम् ।" न्यायभा. २।२।१ । " तथैवैतिह्यमप्यवितथमाप्तोपदेश एवेति ।” – प्रश. भा., कन्द. पू. २१० । २. " आम्नाय विघातॄणामृषीणामतीतानागतवर्तमानेष्वतीन्द्रियेष्वर्थेषु धर्मादिषु ग्रन्थोपनिबद्धेष्वनु निबद्धेषु चात्ममनसोः संयोगाद् - धर्मविशेषाच्च यत् प्रातिभं यथार्थनिवेदनं ज्ञानमुलद्यते तदार्षमित्याचक्षते । तत्तु - प्रस्तारेण देवर्षीणाम् । कदाचिदेष लौकिकानां यथा कन्यका ब्रवोति श्वो मे भ्राता गन्तेति हृदयं मे कथयतीति ॥" - प्रश. भा. पृ. ६२१ । जैन तर्कमा. प. ७७ । ३. स्मृत्यूहादिकमित्येके प्रातिभं च तथापरे । स्वप्नविज्ञानमित्यन्ये स्वसंवेदनमेव नः ॥ " - न्यायावता. श्लो. १९ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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