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________________ -का० ५५ ६३००] जैनमतम् । ३१३ प्रत्यक्षस्योत्पत्तेः। तत्र तत्पुरुषाश्रयणात्प्रत्यक्षो बोधः प्रत्यक्षा बुद्धिरित्यादौ 'स्त्रीपुंसभावोऽपि सिद्धः। .६२९९. अक्षाणां परं-अक्षव्यापारनिरपेक्ष मनोव्यापारेणासाक्षादर्थपरिच्छेदकम् परोक्षमिति परशब्दसमानार्थेन 'परस्' शब्देन सिद्धम्। . . ३००. चशब्दौ द्वयोरपि तुल्यकक्षतां लक्षयतः तेनानुमानादेः परोक्षस्य प्रत्यक्षपूर्वकत्वेन प्रवृत्तेयंत्कैश्चित्प्रत्यक्ष ज्येष्ठमभीष्टमेतन्न श्रेष्ठमिति सूचितम्, द्वयोरपि प्रामाण्यं प्रतिविशेषाभावात् । 'पश्य मृगो धावति'। इत्यादौ प्रत्यक्षस्यापि परोक्षपूर्वकस्य प्रवृत्तः परोक्षस्य ज्येष्ठताप्रसङ्गात् । प्रत्यक्षपूर्वकमेव च परोक्षमुपजायत इति मायं सर्वत्रैकान्तः, अन्यथानुपपन्नतावधारितोच्छ्वासनि:श्वासादिजीवलिङ्गसद्भावाभ्यां जीवसाक्षात्कारिप्रत्यक्षलक्षणेऽपि जीवन्मृतप्रतीतिदर्शनात्, अन्यथा लोकव्यवहाराभावप्रसङ्गात् । विशेष्यके लिंगके अनुसार तीनों लिंगोंमें प्रयोग होता है जैसे प्रत्यक्षो बोधः, प्रत्यक्षा बुद्धिः इत्यादि। यहां बोध और बुद्धिरूप विशेष्य कमसे पुंल्लिग तथा स्त्रोलिंग हैं अतः प्रत्यक्ष शब्द भी उक्त दोनों लिंगोंमें प्रयुक्त हुआ है। ६२९९. इन्द्रियोंसे जो परे हो अर्थात् जिसमें इन्द्रियव्यापारको अपेक्षा न हो केवल मनके व्यापारसे ही जो ज्ञान वस्तुको असाक्षात् रूपसे जाने उसे परोक्ष कहते हैं । पर शब्दका पर्यायवाची 'परस्' शब्द भी है । अतः परस् + अक्ष मिलकर परोक्ष बन जाता है। ६३००. 'च' शब्दसे प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनोंका ही समान बल या एकश्रेणीपन सूचित होता है । ये दोनों ही ज्ञान तुल्यबलवाले हैं और समानरूपसे अपने-अपने विषयमें प्रमाण हैं। इससे जो वादी अनुमान आदि परोक्षज्ञानोंकी उत्पत्ति प्रत्यक्षपूर्वक होनेसे प्रत्यक्षको ज्येष्ठ तथा प्रधान कहते हैं, उनका निराकरण हो जाता है। उनका प्रत्यक्षकी ज्येष्ठताका कथन किसी भी तरह श्रेष्ठ नहीं कहा जा सकता, क्योंकि प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनों ही अपने-अपने विषयमें स्वतन्त्र तथा समान बलवाले हैं इनमें कोई ज्येष्ठ नहीं है। 'देखो, हरिण दौड़ रहा है' इस वाक्यको सुनकर उसका अर्थ विचारकर होनेवाला मृगका प्रत्यक्ष शब्दज्ञानरूप परोक्षपूर्वक हुआ, अतः परोक्षको भी प्रत्यक्षसे ज्येष्ठ मानना चाहिए। 'प्रत्यक्षपूर्वक हो सब जगह परोक्ष उत्पन्न होता है' यह ऐकान्तिक नियम नहीं है । देखो, जिस समय हम दूसरेको आत्माको देख रहे हैं उसी समय जीवन के साथ अविनाभाव रखनेवाले श्वासोच्छ्वास आदि चिह्नोंसे उसकी सत्ताको तथा श्वासोच्छ्वास आदिके अभावसे उसके अभावको भी जानते हैं। जिस समय हम उसे देखते हैं उसी समय हमें उसके जीने और मरनेका भी अनुमानसे परिज्ञान हो ही जाता है। अतः ये दोनों प्रत्यक्ष और १. स्त्रीपुंस्वभा-म. २ । २. "जं परदो विण्णाणं तं तु परोखत्ति भणिमित्थेसु ॥५९॥"-प्रव. सार पृ. ७५ । "पराणोन्द्रियाणि मनश्च प्रकाशोपदेशादि च बाह्यनिमित्तं प्रतीत्य तदावरणकर्मक्षयोपशमापेक्षस्य आत्मन उत्सद्यमानं मतिश्रुतं परोक्षम् इत्याख्यायते ।"-सर्वार्थ सि. ११११ । "उपात्तानुपात्तपरप्राधान्यादवगमः परोक्षम् ।" -तत्वार्थरा. वा. १।११। “अक्षाद् आत्मनः परावृत्तं परोक्षम् । ततः परैः इन्द्रियादिभिः उक्ष्यते सिञ्च्यते अभिवयते इति परोक्षम् ।"-तत्त्वार्थश्लो. पृ. १८२ । प्रमाणप. पृ. ६९। परीक्षामुख ३१ पश्चाध्यायीको. ६२।। न्यायाव. श्लो.४। विशेषाव. भा. इलो. ९.। सन्मति.टी. पृ. ५९५। न्यायकुमु.पू. २७ । प्रमाण. त. ३११। प्रमाणमी. ११।३. "चकारः प्रत्यक्षानुमानयोस्तुल्यबलत्वं समुच्चिमोति ।"-न्यायवि. टी. १३। ४. "आदी प्रत्यक्षग्रहणं प्राधान्यात्...तत्र किं शब्दस्यादावुपदेशो. भवतु आहोस्वित् प्रत्यक्षस्येति । प्रत्यक्षस्येति युक्तम् । कि कारणम् । सर्वप्रमाणानां प्रत्यक्षपूर्वकत्वात् इति ।" न्यायवा. १,१,३। साङ्ख्यत. का. ५। न्यायम. पृ. ६५, १०१। “न च ज्येष्ठप्रमाणप्रत्यक्षविरोधादाम्नायस्यैव तदपेक्षस्याप्रामाण्यमुपचरितार्थत्वं चेति युक्तम्, तस्य पौरुषेयतया निरस्तसपस्तदोषाशङ्कस्य बोधकतया स्वतः सिद्धप्रमाणभावस्य स्वकार्ये प्रमितावनपेक्षत्वात् ।"-मामती प. ६ । ४० For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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