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________________ ३१२ षड्दर्शनसमुच्चये [का० ५५.६२९६६२९६. अत्र च स्वस्य ग्रहणयोग्यः परोऽर्थः स्वपर इत्यस्यापि समासस्याश्रयणाद्वयवहारिजनापेक्षया यस्य यथा यत्र ज्ञानस्याविसंवादः, तस्य तथा तत्र प्रामाण्यमित्यभिहितं भवति, तेन संशयादेरपि मिमात्रापेक्षयान प्रामाण्यव्याहतिः ॥५४॥ ६२९७. अथ विशेषलक्षणाभिधित्सया प्रथमं तावत्प्रमाणस्य संख्या विषयं चाह प्रत्यक्षं च परोक्षं च द्वे प्रमाणे तथा मते । अनन्तधर्मकं वस्तु प्रमाणविषयस्त्विह ॥५५॥ ६ २९८. व्याख्या--अक्षम्-इन्द्रियं प्रति गतमिन्द्रियाधीनतया यदुत्पद्यते तत्प्रत्यक्षमिति तत्पुरुषः, इदं 'व्युत्पत्तिनिमित्तमेव प्रवृत्तिनिमित्तं तु स्पष्टत्वम्, तेनानिन्द्रियादिप्रत्यक्षमपि-प्रत्यक्षशब्दवाच्यं सिद्धम्, 'अक्षो-जीवो वात्र व्याख्येयः, जीवमाश्रित्यैवेन्द्रियनिरपेक्षमनिन्द्रियादि. २९६. स्वपरका 'अपने ग्रहण करनेके लायक पर' ऐसा अर्थ करनेपर अपने-अपने योग्य पदार्थों को जाननेवाले संशयादिज्ञान भी स्वरूपको अपेक्षासे तथा सामान्य वस्तुको जानने की अपेक्षासे कथंचित् प्रमाण हैं यह बात सूचित हो जाती है। 'जो ज्ञान वस्तुके जिस अंशमें अविसंवादी हो वह ज्ञान वस्तुके उस अंशमें प्रमाण है' इस व्यवहार प्रसिद्ध नियमके अनुसार संशयादि ज्ञान भी वस्तुके सामान्य अंशमें प्रमाण हैं । स्वरूपकी दृष्टिसे तो संशय, विपर्यय या सम्यग्ज्ञान सभी ज्ञानमात्र प्रमाण हैं ॥५४॥ ६२९७. अब प्रमाण विशेषके लक्षणोंको कहनेकी इच्छासे पहले प्रमाणकी संख्या तथा विषयका निरूपण करते हैं प्रमाणके दो भेद हैं, एक प्रत्यक्ष और दूसरा परोक्ष है। अनन्तधर्मवाली वस्तु प्रमाणका विषय होती है, प्रमाणके द्वारा अनन्तधर्मात्मकपदार्थ जाना जाता है ॥५५॥ 5२९८. अक्ष-इन्द्रियोंके आधीन जिन ज्ञानोंकी उत्पत्ति है वे प्रत्यक्ष हैं। यह प्रत्यक्षशब्दकी शाब्दिक व्यत्पत्ति है। प्रत्यक्षशब्दकी प्रवत्तिका निमित्त तो स्पष्टता है। जो ज्ञान स्पष्ट है वह चाहे इन्द्रियसे उत्पन्न हो या इन्द्रियोंके बिना ही उत्पन्न हो जाय अवश्य ही प्रत्यक्ष होगा। इससे जो ज्ञान इन्द्रियोंसे उत्पन्न नहीं होते वे अतीन्द्रियज्ञान भी प्रत्यक्षकी मर्यादामें आकर प्रत्यक्ष शब्दके वाच्य हो जाते हैं । अथवा, अक्षका अर्थ है जीव । जीवमात्रको निमित्त लेकर इन्द्रियादिके बिना ही जो ज्ञान उत्पन्न होते हैं वे भी प्रत्यक्ष ही हैं। इस व्युत्पत्तिके अनुसार अतीन्द्रिय और अनिन्द्रिय-मानसज्ञानमें प्रत्यक्षता सिद्ध हो जाती है। तत्पुरुष समास करनेपर प्रत्यक्ष शब्दका १. "अक्षाश्रितत्वं च व्युत्पत्तिनिमित्तं शब्दस्य । न तु प्रवृत्तिनिमित्तम् । अनेन त्वक्षाश्रितत्वेनैकार्थसमवेतमर्थसाक्षात्कारित्वं लक्ष्यते। तदेव शब्दस्य प्रवृत्ति निमित्तम् । ततश्च यत्किचिदर्थस्य साक्षात्कारिज्ञानं तत् प्रत्यक्षमुच्यते । यदि च अक्षाश्रितत्वमेव प्रवृत्तिनिमित्तं स्यात् इन्द्रियज्ञानमेव प्रत्यक्षमुच्येत, न मानसादि, यथा गच्छतोति गौः इति गमनक्रियायां व्युत्पादितोऽपि गोशब्दः गमनक्रियोपलक्षितमेकार्थसमवेतं गोत्वं प्रवृत्तिनिमित्तीकरोति, तथा च गच्छति अगच्छति च गवि गोशब्दः सिद्धो भवति ।" -न्यायवि. टी. ॥३। "यद् इन्द्रियमाश्रित्य उज्जिहीते अर्थसाक्षात्कारिज्ञानं तत् प्रत्यक्षम् इत्यर्थः, एतच्च प्रत्यक्षशब्दव्युत्पत्तिनिमित्तं न प्रवृत्तिनिमित्तम्"-इत्यादि, न्यायवा. टी. पृ. १६ । “वैशद्यांशस्य सदभावात व्यवहार प्रसिद्धितः।"-तत्वार्थइलो. पृ. १८२। न्यायकुमु. पृ.२१ । २. “अक्ष्णोति व्याप्नोति जानातीत्यक्ष आत्मा तमेव प्राप्तक्षयोपशमं प्रक्षोणावरणं वा प्रतिनियतं प्रत्यक्षम् ।"-सर्वार्थसि. १।। -त. वा. १।१।२ प्रमाणप. पृ. ६८। "तथा च भद्रबाह:-जीवो अक्खो तं पइ जं वदई तं तु होइ पच्चक्खं । परओ पुण अक्खस्स बट्टन्तं होई पारोक्खं ।" (नियुक्ति) न्यायवि. टी. टि. प. १५ । "जीवो अक्खो अत्थव्वावण भोयण गुणण्णिओ जेण । तं पई वटुई णाणं जं पच्चवखं तयं तिविहम् ॥८९॥'-विशेषाव. भा. । न्यायकुमु. पृ. २६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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