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________________ - का० ५४. ६२९५ ] जैनमतम् । ३११ $ २९०. 'स्वपरव्यवसायि ज्ञानं प्रमाणं' इति प्रकर्षेण संशयाद्यभावस्वभावेन मीयते परिछिद्य वस्तु येन तत्प्रमाणम् । स्वमात्मा ज्ञानस्य स्वरूपं परः स्वस्मादन्योऽर्थं इति यावत् तौ विशेषेण यथावस्थितस्वरूपेणावस्यति निश्चिनोतीत्येवंशीलं यत्तत्स्वपरव्यवसायि । $ २९१. ज्ञायते प्राधान्येन विशेषो गृह्यतेऽनेनेति ज्ञानम् । अत्र ज्ञानमिति विशेषणमज्ञानरूपस्य व्यवहारमार्गानवतारिणः सन्मात्रगोचरस्य स्वसमयप्रसिद्धस्य दर्शनस्य संनिकर्षादेश्चाचेतनस्य नैयायिकादिकल्पितस्य प्रामाण्यपराकरणार्थम् । $ २९२. ज्ञानस्यापि च प्रत्यक्षरूपस्य शाक्यैनिविकल्पतया प्रामाण्येन कल्पितस्ये संशय'विपर्ययानध्यवसायानां च प्रमाणत्वव्यवछेदार्थं व्यवसायीति । ९ २९३. पारमार्थिकपदार्थ सार्थापला पिज्ञानाद्वैतादिवादिमतमपाकर्तुं परेति । ६ २९४. नित्यपरोक्षबुद्धिवादिनां मीमांसकानामेकात्मसमवायिज्ञानान्तरप्रत्यक्षज्ञानवादिनां वैशेषिकयोगानामचेतनज्ञानवादिनां कापिलानां च कदाग्रहनिग्रहाय स्वेति । $ २९५. समग्रं तु लक्षणवाक्यं परपरिकल्पितस्यार्थोपलब्धिहेत्वादेः प्रेमाणलक्षणस्य प्रतिक्षेपार्थम् । के लक्षण पहले सब जगह सामान्य लक्षणके कहने की परिपाटी है । इसीलिए प्रमाण सामान्यका लक्षण कहते हैं -- $ २९० स्व-अपने स्वरूप तथा परपदार्थोंका व्यवसाय निश्चय करनेवाला ज्ञान प्रमाण है । प्र-प्रकर्ष अर्थात् संशय, विपर्यय आदिका निराकरण करके मीयते - जाना जाता है वस्तुतत्त्व जिसके द्वारा उसे प्रमाण कहते हैं । स्व- आत्मा ज्ञानका स्वरूप पर अपनेसे भिन्न बाह्य पदार्थ इन स्व-परका वि-विशेष रूपसे यथावत् जिस रूप में पदार्थ हैं ठीक उसी रूपसे निश्चय करनेवाला पदार्थका ज्ञान प्रमाण है । 1 $ २९१. जाना जाता है प्रधान रूपसे गृहीत होता है विशेष अंश जिसके द्वारा उसे ज्ञान कहते हैं । इस 'ज्ञान' विशेषण से ज्ञानसे भिन्न अर्थात् अज्ञानरूप, सामान्यमात्रका आलोचन करनेवाले तथा प्रवृत्ति आदि व्यवहारके अनुपयोगी जैन आगम में प्रसिद्ध दर्शन और नैयायिक आदि द्वारा माने गये अचेतनात्मक सन्निकर्ष आदि प्रमाणताका व्यवच्छेद हो जाता है, क्योंकि दर्शन चेतन होकर भी ज्ञानरूप नहीं है तथा सन्निकर्ष आदि तो अवचेतन होनेसे स्पष्ट ही अज्ञान रूप हैं। $ २९२. व्यवसायी - निश्चयात्मक विशेषणसे बौद्धोंके द्वारा प्रमाण रूपसे माने गये निविकल्पक प्रत्यक्षका तथा संशय, विपर्यय और अनध्यवसायको प्रमाणताका व्यवच्छेद होता है । $ २९३. 'पर व्यवसाय विशेषण वास्तविक घटपटादि बाह्य पदार्थों का लोप करके मात्र ज्ञानकी ही सत्ता माननेवाले विज्ञानाद्वैतवादोके मतका निराकरण हो जाता है । $ २२४. ज्ञानको सर्वथा परोक्ष माननेवाले मीमांसकोंके ज्ञानका द्वितीय अनुव्यवसाय रूपसे प्रत्यक्ष मानने वाले नैयायिक और वैशेषिकोंके तथा ज्ञानको प्रकृतिका धर्म मानकर अचेतन माननेवाले सांख्योंके दुरभिप्रायका निराकरण करनेके लिए 'स्व व्यवसाय' पद दिया है । २९५. पूरे लक्षण वाक्यसे नैयायिक आदिके अर्थको उपलब्धिमें जो कारण है उसे प्रमाण कहते हैं इत्यादि प्रमाणके लक्षणोंका निषेध हो जाता है । १. "स्वपरव्यवसायि ज्ञानं प्रमाणम् । " - प्रमा त १२ जैनतर्कमा पृ. १ । २. - णयात्मज्ञानस्य भ. २ । ३. - ण्यनिराकर- म. २ । ४. क्षस्वरूपस्य म. २ । ५ - तस्यापि संश- आ. । ६. प्रमाणत्वलक्षणत्व प्र. आ. । प्रमाणलक्षणत्व प्र-भ. १, २, प. १, २ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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