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________________ ३१० षड्दर्शनसमुच्चये [का० ५४. ६२८९ - जीवानामनादिपारिणामिको भावः। एवं सामान्यतो भव्यत्वमभिधायाथै तदेव प्रतिविशिष्टमभिधातुमाह तथा तेना(न)नियतप्रकारेण भव्यत्वं तथाभव्यत्वम् । अयं भावः-भव्यत्वमेव स्वस्वकालक्षेत्रगुर्वादिद्रव्य लक्षणसामग्रीभेदेन नानाजीवेषु भिद्यमानं सत्तथाभव्यत्वमुच्यते अन्यथा तु सर्वैः प्रकारैरेकोकारायां योग्यतायां सर्वेषां भव्यजीवानां युगपदेव घर्मप्राप्त्यादि भवेत्, तथाभव्यत्वस्य यः पाकः फलदानाभिमुख्यं तेन तथाभव्यत्वपाकेन, यस्य कस्यापि सागरोपमकोटाकोटयभ्यन्तरानीतसर्वकर्मस्थितिकस्य भव्यस्य एतत्रितयं ज्ञानवर्शनचारित्रत्रयं, भवेत्, यत्तदोनित्याभिसंबन्धात्, स भव्यः सम्यक्-समीचीने ये ज्ञानक्रिये-ज्ञानचारित्रे तयोर्योगोत्संयोगान्मोक्षस्य-बन्धवियोगस्यानन्तज्ञानदर्शनसम्यक्त्वसुखवीर्यपञ्चकात्मकस्य भाजनं स्थानं जायते, एतेन केवलाभ्यां ज्ञानक्रियाभ्यां न मोक्षः किं तूभाभ्यां संयुक्ताभ्यां ताभ्यामिति ज्ञापितं भवति । अत्र ज्ञानग्रहणेन सदा सहचरत्वेन दर्शनमपि ग्राह्यम् । यदुवाच वाचकमुख्यः "सम्यग्ज्ञानदर्शनचारित्राणि मोक्षमार्गः" [त. सू. १११ ] इति ॥ २८९. प्रत्यक्षादिप्रमाणविशेषलक्षणमत्र ग्रन्थकारः स्वयमेव वक्ष्यति। तच्च विशेषलक्षणं सामान्यलक्षणाविनाभावि, सामान्यलक्षणं च विशेषलक्षणाविनाभावि, सामान्य विशेषलक्षणयोरन्योन्यापरिहारेण स्थितत्वात्। तेन प्रमाणविशेषलक्षणस्यादौ प्रमाणसामान्यलक्षणं सर्वत्र वक्तव्यम्, अतोऽत्रापि प्रथमं तदभिधीयते । स्वाभाविक भाव है। इस तरह सामान्यरूपसे भव्यत्वका निरूपण करके अब विशेष भव्यताका कथन करते हैं। तथा उस निश्चित रूपसे होनेको योग्यता तथा भव्यत्व कही जाती है । तात्पर्य यह कियद्यपि साधारण रूपसे भव्यत्व एक है परन्तु वह अपने-अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल, गुरु आदिकाउपदेशरूप सामग्रोकी भिन्नतासे भिन्न-भिन्न जीवोंमें जुदे-जुदे प्रकारका पाया जाता है । यदि सब जीवोंमें एक ही प्रकारका भव्यत्व हो तो सभी जीवोंमें एक ही साथ एक ही प्रकारको योग्यताका विकास होनेसे युगपद् मुक्ति हो जानी चाहिए । अतः भिन्न-भिन्न प्रकारके भव्यत्वोंमें-से एक अमुक प्रकारके भव्यत्वका परिपाक होनेसे मुक्तिको योग्यता विकसित होती है। जिस जीवके समस्त कर्मों की स्थितियां कम करते-करते एक कोटाकोटी सागरके भीतर आ गयी हों उस न्यून कर्म स्थितिवाले भव्यजीवके सम्यग्दर्शन आदि रत्नत्रय होते हैं । यत और ततका नित्य सम्बन्ध होता है. अतः वही न्यूनकर्म स्थितिवाला भव्य समीचीन ज्ञान और चारित्रके द्वारा कर्मबन्धनोंको काटकर मोक्षपद पा लेता है, वह अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, सम्यक्त्व, अनन्तसुख तथा अनन्तवीर्य इस अनन्तपंचकका स्वामी हो जाता है। इससे यह भी सूचित होता है कि अकेले ज्ञान और अकेली क्रियासे ज्ञानशून्य चारित्र तथा चारित्ररहित ज्ञानसे मुक्ति नहीं होती किन्तु जब सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र दोनों परिपूर्ण होते हैं तभी मोक्षकी प्राप्ति होती है। सम्यग्ज्ञानको मोक्षका कारण बतानेसे उसका सहचारी सम्यग्दर्शन तो आ ही जाता है। सम्यग्दर्शनके बिना तो ज्ञान और चारित्रमें 'सम्यक्' व्यपदेश ही नहीं हो सकता। श्री तत्त्वार्थसूत्रकार वाचकमुख्यने कहा भी है कि"सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्रको पूर्णता ही मोक्षका मार्ग है।" इति । २८९. प्रत्यक्ष आदि विशेष प्रमाणोंके लक्षण ग्रन्थकार स्वयं ही कहेंगे। प्रमाण विशेषके लक्षणका कथन तो तब हो सकता है जब पहले सामान्यका लक्षण कर दिया जाय । सामान्य लक्षण और विशेष लक्षण दोनों ही परस्पर सापेक्ष हैं, अविनाभावी हैं। अतः प्रमाण विशेष १.-थ प्रति-म. । २. -रायां सर्वेषां भ. २ । ३. -मकोटिकोट यन्त-भ.२। -मकोटयन्त आ.। ४. -त्ररूपरत्नत्रयं म. २। ५. -गान्मोक्षस्य म. २, प. १, २। ६. -पि स प्रथम तद-क.,-पि तद-म, २ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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