________________
-का० ५४. ६२८८] जैनमतम्।
३०९ 5 २८५. एतानि नव तच्चानि यः श्रद्धत्ते स्थिराशयः।
सम्यक्त्वज्ञानयोगेन तस्य चारित्रयोग्यता ॥५३।। १२८६. व्याख्या-एतानि-अनन्तरोदितानि नवसंख्यानि तत्त्वानि यः स्थिराशयो-न पुनः शङ्कादिना चलाचत्तः श्रद्धानस्य ज्ञानपूर्वकत्वाज्जानीते श्रद्धत्ते च-अवैपरीत्येन मनते। एतावता जानन्नप्यश्रदधानो मिथ्यादृगेवेति सूचितम् । यथोक्तं श्रीगन्धहस्तिना महातर्के "द्वादशाङ्गमपि श्रुतं विदर्शनस्य मिथ्या" इति । तस्य श्रद्दधानस्य सम्यक्त्वज्ञानयोगेन-सम्यग्दर्शनज्ञानसद्भावेन चारित्रस्य-सर्वसावधव्यापारनिवृत्तिरूपस्य देशसर्वभेदस्य योग्यता भवति, अत्र ज्ञानात्सम्यक्त्वस्यव प्राधान्येन पूज्यत्वात्प्राग्निपातः, अनेन सम्यक्त्वज्ञानसद्भाव एव चारित्रं भवति नान्यथेत्यावेदितं द्रष्टव्यम् ॥५३॥ 5 २८७. तथाभव्यत्वपाकेन यस्यैतत्त्रितयं भवेत् ।
सम्यग्ज्ञानक्रियायोगाजायते मोक्षभाजनम् ॥५४॥ ६२८८. व्याख्या-जीवा द्वेधा भव्याभव्यभेदात्, अभव्यानां सम्यक्त्वाद्यभावः, भव्या-- नामपि भव्यत्वपाकमन्तरेण तद्भाव एव, तथाभव्यत्वपाके तु तत्सद्भावः, ततोऽत्रायमर्थ:भविष्यति विवक्षितपर्यायेणेति भव्यः, तद्भावो भव्यत्वम्, भव्यत्वं नाम सिद्धिगमनयोग्यत्वम्,
६२८५. इन नवतत्वोंपर जो स्थिरचित्त तथा अडिग श्रद्धासे विश्वास करता है उसमें सम्यग्दर्शन और ज्ञानको प्राप्ति हो जानेसे चारित्रको योग्यताका विकास होने लगता है ॥५३॥
२८६. इन जीवादि नव तत्त्वोंका जो स्थिर अभिप्रायसे शंका आदिसे होनेवाली चित्तकी चंचलताको छोड़कर अविपरीत यथावत् ज्ञान तथा श्रद्धान करता है वह सम्यग्दृष्टि तथा ज्ञानी है। श्रद्धान ज्ञानपूर्वक होता है अतः इन तत्वोंके श्रद्धानमें इनका ज्ञान भी अन्तर्भूत रहता ही है। श्रद्धान शब्दके प्रयोगसे यह सूचित होता है कि जो व्यक्ति जानकर भी यथावत् श्रद्धान नहीं करता वह मिथ्यादृष्टि है। उसका ज्ञान मिथ्याज्ञान है निरर्थक है । गन्धहस्तिने महातर्कमें कहा है कि-"यदि मिथ्यादृष्टिको द्वादशांग श्रुतका भो. परिज्ञान हो जाय तब भी वह मिथ्या हो है निरर्थक है।" उस श्रद्धालु सम्यग्दृष्टिके सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानका सद्भाव होनेसे समस्त पाप क्रियाओंसे निवृत्ति करनेवाले चारित्रकी योग्यताका अंशतः या पूर्णरूपसे विकास होने लगता है। सर्व चारित्र तथा देश चारित्रके भेदसे चारित्र दो प्रकारका होता है। ज्ञानसे पहले सम्यग्दर्शनका प्रयोग सम्यग्दर्शनकी प्रधानता तथा पूज्यताका सूचन करता है। यह सम्यग्दर्शन ही ज्ञानमें 'सम्यग्' व्यवहार करता है। सम्यग्दर्शन और ज्ञानके होनेपर ही सम्यक् चारित्र हो सकता इनके बिना होनेवाली क्रियाएं मिथ्या चारित्र रूप हो है ॥५३॥
६२८७. जिस भव्यको भव्यत्व गुणके परिपाकसे ये रत्नत्रय प्राप्त हो जाते हैं वही भव्य सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक्चारित्रकी पूर्णतासे मोक्षको प्राप्त कर लेता है ॥५४॥
२८८. जीव दो प्रकारके होते हैं-एक भव्य-होनहार तथा दूसरे अभव्य । अभव्य जीवोंको सम्यग्दर्शन आदि नहीं होते। भव्यजीवोंके भी जबतक भव्यत्वगुणका परिपाक नहीं होता तबतक सम्यग्दर्शन आदि नहीं होते, जब इनके भव्यत्वगुणका परिपाक हो जाता है तभी सम्यग्दर्शन आदि विकसित हो जाते हैं। जो अपनी उस विवक्षित सम्यग्दर्शन आदि पर्याय रूपसे परिणत होगा उसे भव्य कहते हैं । भव्यके असाधारण स्वरूप या खासियतको भव्यत्व कहते हैं । भव्यत्वका सीधा अर्थ है मोक्ष जानेको योग्यता। यह भव्यत्व जीवोंका अनादिकालसे रहनेवाला पारिणामिक
१. मन्तव्यम् म. । २. भव्या अभव्याश्च अभ-म. १, २, प. १,२। ३. -र्थः विवक्षितपर्यायेण भवतीति भव्यः म. २ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org