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षड्दर्शनसमुच्चये [का० ५२. ६ २८१तेषां स्मा(सा)रणाद्यकर्तृत्वात् ।
६२८१. अथामहद्धिकत्वेनेति पक्षः, सोऽपि न दक्षः, यतो दखिाणामपि केषांचिन्मुक्तिः धूयते केषांचिन्महद्धिकाणामपि चक्रवादीनां तदभावः।
5 २८२. अथ मायादिप्रकर्षवत्त्वेनेति, तदपि न युक्तम्, नारददृढप्रहारिभिर्व्यभिचारात् ।
६२८३. तन्न हीनत्वं कथमपि स्त्रीणां जाघटीतीति हीनत्वावित्यसिद्धो हेतुः। ततश्चाविगानेन परुषाणामिव योषितामपि निर्वाणं प्रतिपत्तव्यमा प्रयोगश्चात्र-अस्ति स्त्रीणां मुक्तिः, अविकलकारणवत्त्वात् पुंवत्, तत्कारणानि सम्यग्दर्शनादीनि स्त्रीषु संपूर्णान्युपलभ्यन्ते । ततो भवत्येव स्त्रीणां मोक्ष इति सुस्थितं मोक्षतत्त्वम् । एतेन । २८४. "ज्ञानिनो धर्मतीर्थस्य कर्तारः परमं पदम् ।
गत्वागछन्ति भूयोऽपि भवं तीर्थनिकारतः ॥१॥"* इति परपरिकल्पितं पराकृतम् ॥५२॥ सकतीं इसलिए पुरुषोंसे हीन होकर मोक्षके अयोग्य मानी जाय; तो फिर पढ़ानेवाले आचार्योंकी ही मुक्ति होनी चाहिए और पढ़नेवाले शिष्योंको संसारमें ही चक्कर काटते रहना चाहिए।
६२८१. स्त्रियोंको ऋद्धि नहीं होती इसलिए हीन कहना तो वस्तुतः जेन शासनकी अनभिज्ञता ही प्रकट करना है। भला वीतरागी मोक्षका ऋद्धिसे क्या सम्बन्ध है। बहुत-से दरिद्र भी मुक्ति गये हैं तथा बड़े-बड़े चक्रवर्ती आदि इसी संसारमें पड़े हुए हैं।
$२८२. माया आदिकी प्रकर्षता होनेसे स्त्रियोंको हीन तथा मोक्षके अयोग्य कहना भी उचित नहीं है। क्योंकि अत्यन्त कलहप्रिय नारद तथा तीव्र हिंसक दृढ़प्रहारी आदिमें कषायको तीव्रता होनेपर भी वे पुरुषोंमें हीन नहीं समझे जाते और न उनकी मुक्तिको योग्यतामें ही किसी प्रकारका बट्टा लगा।
६२८३. इस प्रकार किसी भी तरह स्त्रियां पुरुषोंसे होन-कमजोर सिद्ध नहीं हो पातीं। अतः उन्हें हीन कहना असिद्ध ही है। अतः निर्विवाद रूपसे पुरुषोंको तरह स्त्रियोंको भी मोक्ष मानना चाहिए। प्रयोग-स्त्रियोंको भी मोक्ष होता है क्योंकि उनमें पुरुषोंकी ही तरह मोक्षके कारणोंको समग्रता तथा पूर्णता पायी जाती है। मोक्षके कारण हैं सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र। सो ये तीनों ही पुरुषोंकी तरह स्त्रियोंमें भी पूर्णरूपसे पाये जाते हैं। अतः स्त्रियोंको मोक्ष होता ही है, इसमें किसी प्रकारकी शंका नहीं है । इस तरह मोक्षतत्त्वका निरूपण हुआ।
२८४. यह मोक्ष जिसे हो जाता है उसे अनन्तकाल तक रहता है। वह कभी भी वहांसे लोटकर संसारी नहीं बनता । अतः परवादियोंका यह कथन खण्डित हो जाता है कि-"धर्मतीर्थके प्रवर्तक ज्ञानी जीव अपने धर्मको हानि या तिरस्कार देखकर मोक्षसे फिर वापस 3
ड त हो जाता है कि
मका हानि या तिर
अवतार ग्रहण करते हैं।
१.-प्रकर्षकत्वेनेति आ., क.। २. "अस्ति स्त्रोनिर्वाणं पृवत यदविकलहेतुकं स्त्रीषु । न विरुद्धधति हि रत्नत्रयसंपदनिर्वृतेर्हेतुः ॥"-स्त्रीमु. श्लो. २। सन्मति. टी. पृ. ७५२ । एतदर्थम् उत्तराध्ययनस्य पाइयटीकापि विलोकनीया । "इत्थीलिङ्गसिद्धा-सम्यग्दर्शनादीनि पुरुषाणामिव स्त्रीणामप्यविकलानि दृश्यन्ते तथाहि..."-प्रज्ञा. मलय. पृ. २० A. I नन्दि. मलय. पृ. १३१ B. । रत्नाकराव. ७५७ । "यथोक्तं यापनीयतन्त्रे-णो खलु इत्थी अजीवो, ण यावि अभब्वा, ण यावि दंसणविरोहिणी, णो अमाणुसा, णो अणारिउप्पत्ती, णो असंखेज्जाउया, णो अइकूरमई, णो ण उवसन्तमोहो, णो ण सुद्धाचारा, णो असुद्धबोंदो, णो ववसायवज्जिया, णो अपुव्वकरणविरोहिणी, णो णवगुणगणरहिता, णो अजोगा लखीए, णो अकल्लाणभायणं ति कहं न उत्तमधम्मसाहिगत्ति।" ललितवि. पु. ५७ B.I शास्त्रवा. यशो. पु. ४२९ B.। ३. इति स्थितं आ., क.। ४. *एतदन्तर्गत: पाठो नास्ति म. १, २,
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