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३०६ षड्दर्शनसमुच्चयै
[का० ५२. ६ २७७विपक्षव्यावृत्तिकमिदं साधनम् । चरमशरीरिभिनिश्चितव्यभिचार' च, तेषां हि सप्तमपृथ्वीगमनहेतुमनोवीर्यप्रकर्षाभावेऽपि मुक्तिहेतुमनोवीर्यप्रकर्षसद्भावात् । तथा मत्स्यैरपि व्यभिचारः, तेषां हि सप्तमपृथ्वीगमनहेतुमनोवीर्यप्रकर्षसद्भावेऽपि न मुक्तिगमनहेतुशुभमनोवीर्यप्रकर्षसदभाव इति । तथा नहि येषामधोगमनशक्तिः स्तोका तेषामूर्ध्वगतावपि शक्तिः स्तोकैव, भुजपरिसादिभिव्यभिचारात् । तथाहि-भुजपरिसा अधो द्वितीयामेव पृथ्वी गच्छन्ति न ततोऽधः, पक्षिणस्तृतीयां यावत्, चतुर्थी चतुष्पदाः पञ्चमीमुरगाः, अथ च सर्वेऽप्यूर्ध्वमुत्कर्षतः सहस्रारं यावद्गच्छन्ति, अतो न सप्तमपृथ्वीगमनायोग्यत्वेन विशिष्टसामर्थ्यासत्त्वम् ।
२७७. नापि वादादिलब्धिरहित्वेन , मूककेवलिभिर्व्यभिचारात् । चाहिए। अन्तर्व्याप्तिकी सिद्धि तो निर्दोष अविनाभावसे होती है। परन्तु सातवें नरक जाने में तथा मोक्ष जानेमें कोई अविनाभाव नहीं है। कोई सातवें नरक न भी जाय तब भी मोक्ष जा सकता है। इस तरह यह हेतु सन्दिग्ध व्यभिचारी है। चरमशरीरी सातवें नरक नहीं जाकर भी मोक्ष जाते हैं अतः निश्चित रूपसे ही उक्त नियम व्यभिचारी है। चरमशरीरियोंके सातवें नरक जानेके लायक तीव्र अशुभ भाव तथा शक्ति नहीं है फिर भी उनमें मोक्षके कारण विशुद्ध भाव तथा शक्ति पायी जाती है। महामत्स्यके सातवें नरक जानेके योग्य तीव्र संक्लेश भाव तथा शक्तिका विकास तो देखा जाता है पर उसमें मोक्ष जानेके लायक विशुद्ध भाव तथा शक्तिका उच्च विकास नहीं पाया जाता, अतः महामत्स्यसे भी आपका नियम व्यभिचारी हो जाता है। यह भी कोई नियम नहीं है कि-'जिनमें नीचे नरकमें जानेकी शक्ति कम है उनमें ऊपर स्वर्ग जानेकी भी शक्ति कम ही होनी चाहिए' भुजपरिसर्प आदिसे उक्त नियम व्यभिचारी हो जाता है। देखो, भुजपरिसर्प नीचे दूसरे ही नरक तक जाते हैं, पक्षी तीसरे नरक तक, चौपाये पशु चौथे नरक तक, तथा सर्प पांचवें ही नरक तक जाते हैं परन्तु ये सभी ऊपर सहस्रार नामके बारहवें स्वर्ग तक ही जाते हैं । इसलिए यह कोई नियम नहीं है कि जो जितना नीचे जाये वह उतना ही ऊपर जा सके अत: सातवें नरक जानेको योग्यता न होनेसे स्त्रियोंमें मोक्ष जानेकी विशिष्ट शक्तिका अभाव नहीं माना जा सकता है।
२७७. वाद ऋद्धि आदि न होनेके कारण वाद आदि करनेकी कुशलता न होनेके कारण भी स्त्रियोंको पुरुषसे हीन मानकर उनका मोक्षका रास्ता बन्द नहीं किया जा सकता, क्योंकि इस तरह तो मूक केवलो भो, जो एक भी शब्दका उच्चारण नहीं करके चुपचाप ही मोक्ष चले जाते हैं, मोक्ष न जा सकेंगे।
१.-क्तिस्तेषा-भ. २ । २. "विषमगतयोऽप्यधस्तादुपरिष्टात्तुल्यमासहस्रारम् । गच्छन्ति च तिर्यञ्चस्तदधोगत्यूनताऽहेतुः ॥"-स्त्रीमु. श्लो. ६ । “अपि च भुजपरिसीः द्वितीयामेव पृथिवीं यावत् गच्छन्ति न परतः परपृथिवीगमनहेतुतथारूपमनोवीर्यपरिणत्यभावात्, तृतीयां यावत् पक्षिणः । चतुर्थी चतुष्पदाः,पञ्चमी मुरगाः, अथ च सर्वेऽप्यूर्ध्वमुत्कर्षतः सहस्रारं यावद् गच्छन्ति । तत्राधोगतिविषये मनोवीर्यपरिणतिवैषम्यदर्शनादूर्ध्वगतावपि च न तद्वैषम्यम् ।"-प्रज्ञा. मलय. पृ. २१ A.। नन्दि. मलय. पृ. १३३ A.। शास्त्रवा. यशो. पृ. १२८ B. | युक्तिप्र. पृ. ११५। ३. “यतो यत्र ऐहिकवादविक्रियाचारणादिलब्धीनामपि हेतुः संयमविशेषो नास्ति तत्र मोक्षहेतुरसौ भविष्यतीति कः सुधी श्रद्दधीत ?"-न्यायकुमु. ५.८७२ । प्रमेयक. पृ. ३३० । ४. “वादादिविकूर्वणत्वादिलब्धिविरहे ते कनीयसि च । जिनकल्पमनःपर्ययविरहेऽपि न सिद्धिविरहोऽस्ति ॥ वादादिलब्ध्यभाववदभविष्यद् यदि च सिद्धयभावोऽपि । तासामवारयिष्यद् यथैव जम्बूयुगादारात् ।" -स्वीम. श्लो. ७-८। प्रज्ञा. मलय, पृ. २१ A.I रत्नकराव. ७५७ । "माषतुषादीनां लब्धिविशेषहेतुसंयमाभावेऽपि मोक्षहेतुतच्छ्रवणात्, क्षायोपशमिकलब्धिविरहेऽपि क्षायिकलब्धेरप्रतिघातात् ।" -शास्त्रवा. यशो. पृ. १२. B. ।
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