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________________ ३०३ - का० ५२. ६२७४ ] जैनमतम् । दुस्त्यजत्वेन, मुक्त्यङ्गतया वा न प्रथमत एव परिहारः। यदि दुस्त्यजत्वेनेति' पक्षः, तदा तदपि किं सर्वपुरुषाणाम्, केषांचिद्वा। न तावत्सर्वेषाम्, दृश्यन्ते हि बहवो वह्निप्रवेशादिभिः शरीरमपि त्यजन्तः । अथ केषांचित, तदा वस्त्रमपि केषांचिद्दुस्त्यजमिति न परिहार्य शरीरवत् । अथ मुक्त्यङ्गत्वेनेति पक्षः; हि वस्त्रस्यापि तथाविधशक्तिविकलानां स्वाध्यायाधुपष्टम्भकत्वेन शरीरवन्मुक्त्यङ्गत्वात्किमिति परिहारः। अथ धारणमात्रेण; एवं सति शीतकाले प्रतिमापन्नं साधुं दृष्ट्वा केनाप्यविषह्योपनिपातमद्य शीतमिति विभाव्य धर्माधिना साधुशिरसि वस्त्रे प्रक्षिप्ने सपरिग्रहता स्यात् । अथ यदि स्पर्शमात्रेण; तदा भूम्यादिना निरन्तरं स्पर्शसद्भावात्सपरिग्रहत्वेन तीर्थकरादी. नामपि न मोक्षः स्यादिति लाभमिच्छतो भवतो मूलक्षतिः संजाता। अथ जीवसंसक्तिहेतुत्वेन; तर्हि शरीरस्यापि जीवसंसक्तिहेतुत्वात्परिग्रहहेतुत्वमस्तु, कृमिमण्डूकाद्युत्पादस्य तत्र प्रतिप्राणिप्रतीत. त्वाद् । अथास्ति, परं यतना तत्र विधीयते, तेनायमदोष इति चेत्, हि वस्त्रेऽप्ययं न्यायः कि काकैक्षितः। वस्त्रस्यापि यतनयैव सीवनक्षालनादिकरणेन जीवसंसक्तिनिवारणात् । तन्न वस्त्र. कठिन है अथवा वह संयमका साधक होकर मोक्षका कारण होता है ? यदि शरीरका त्याग अत्यन्त कठिन है। तो सभी पुरुषोंको उसका छोडना अत्यन्त कठिन है. या कुछ अल्प शक्तिवालोंको ? 'सब पुरुषोंको शरीरका छोड़ना अत्यन्त कठिन है' यह तो नहीं कहा जा सकता, क्योंकि बहुत-से साहसी पुरुष धर्मके लिए अग्निमें जलकर, पर्वतसे गिरकर तथा काशी करवट आदि लेकर खुशीसे शरीरको छोड़ देते हैं। यदि किन्हीं होनशक्तिक पुरुषोंके लिए शरीरका छोड़ना अत्यन्त कठिन है, तो वस्त्रका छोड़ना भी तो किन्हीं के लिए अत्यन्त कठिन होता है अतः शरीरको हो तरह उसके छोड़नेका आग्रह नहीं होना चाहिए। यदि शरीर मुक्तिका साधक होनेसे अपरिहार्य है, तो वस्त्र भी तो किन्हीं वृद्ध दुर्बल आदि शक्तिहीन लोगों को स्वाध्याय संयम आदिकी प्रवृत्तिमें स्थिरता लाता है और इस तरह वह उन लोगोंको शरीरकी ही तरह संयमका साधक होनेसे मोक्षका अंग है अतः क्यों वस्त्रके परिहारका ऐकान्तिक आग्रह किया जाता है ? यदि वस्त्र शरीरपर आ जाने मात्रसे ही परिग्रहरूप हो जाये, तो कड़ी सरदीके दिनोंमें नदीके किनारे ध्यानावस्थ साधुके ऊपर किसी सहृदय धर्मात्मा भक्तने सरदी की भीषणताका खयाल करके कपडा डाल दिया तो क्या इतने मात्रसे वह साधु परिग्रही या वस्त्र परिग्रहरूप हो जायेगा? यदि छू लेने मात्रसे वस्त्र परिग्रह हो जाता हो, तो पृथिवी आदि कितने ही पदार्थों को निरन्तर छुते रहने के कारण तीर्थंकर आदि भी परिग्रही हो जायेंगे और इस तरह वे केवली या सिद्ध नहीं हो पायेंगे। यह तो नफेके लिए किये गये रोजगारमें मूल पूंजीके घाटेकी ही बात हुई। चाहा तो था कि वस्त्रको परिग्रह सिद्ध कर दिया जाय पर वहां तीर्थंकर ही परिग्रही बन गये। यदि चीलर आदि जीवोंके रहने तथा उनके उत्पन्न होनेका स्थान वस्त्र परिग्रह रूप है, तो शरीर भी अनेकों जीवोंके रहनेका स्थान है अतः इसे भी परिग्रह मान लेना चाहिए। 'शरीरमें भी कीड़े पड़ जाते हैं, वह सड़ जाता है, गल जाता है आदि । शरीरके भीतर निगाह डालिए कितने ही कीड़े उसमें बिलबिलाते हुए दिखाई देंगे। यदि यह कहा जाय कि शरीरमें कीड़े रहो, पर यत्नाचार पूर्वक सावधानीसे प्रवृत्ति करनेपर उनकी विराधना बुद्धि पूर्वक हिंसा नहीं होतो अतः यह दोष नहीं हो सकता' तो वस्त्रमें भी इसी युक्तिसे दोषका परिहार किया जा सकता है, यहाँ भी उस न्यायको कोए नहीं खा जायेंगे। वस्त्रको भी सावधानी पूर्वक सोनेसे तथा धोने आदि १.-ति तदापि भ. २ । २. -याद्यवष्टम्भ-म. २। ३. - मा प्रतिपन्नम् भ. १, २, प. १, २। ४. सति परिग्र-म.२ । ५. -रन्तरस्पर्श-म. २.६.-तो मूलक्षति: म. २, प. १, २। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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