SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 328
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३०२ षड्दर्शनसमुच्चये [ का. ५२. ६२७३ - भोगमात्रेण; तदा परिभोगोऽपि' किं वस्त्रपरित्यागासमर्थत्वेन संयमोपकारित्वेन वा। तत्र न तावदाद्यः; यतः प्राणेभ्योऽपि नापरं प्रियम्, प्राणानप्येताः परित्यजन्त्यो दृश्यन्ते, वस्त्रस्य का कथा । अथ संयमोपकारित्वेन; तहि किं न पुरुषाणामपि संयमोपकारितया वस्त्रपरिभोगः। ६२७३. अथाबला एता बलादपि पुरुषैरुपभुज्यन्त इति तद्विना तासां संयमबाधासंभवो न पुनर्नराणामिति न तेषां तदुपभोग इति चेत् । २७४. तहि न वस्त्राच्चारित्राभावः, तदुपकारित्वात्तस्य, आहारादिवत् । नापि परिग्रहरूपतया; यतोऽस्य तद्रूपता किं मूर्छाहेतुत्वेन, धारणमात्रेण वा अथवा स्पर्शमात्रेण जीवसंसक्तिहेतुत्वेन वा। तत्र यद्याद्यः; तर्हि शरीरमपि मूर्छाया हेतुर्न वा। तावदहेतुः; तस्यान्तरङ्गतत्त्वेन दुर्लभतरतया विशेषतस्तद्धेतुत्वात् । अथ मूर्छाया हेतुरिति पक्षः; तहि वस्त्रवत्तस्यापि किं पाता? यदि वस्त्रके पहिनने मात्रसे ही चारित्रमें बाधा आती है चारित्र पूर्ण नहीं हो पाता; तो यह विचारना चाहिए कि स्त्रियां क्यों वस्त्रको धारण करती हैं ? क्या वे वस्त्रका त्याग करने में असमर्थ हैं, अथवा वे उसे संयमका साधक मानकर पहिनती हैं ? वस्त्रके त्यागनेकी असामयं तो नहीं कही जा सकती; वस्त्र कुछ प्राणोंसे अधिक प्यारा तो है ही नहीं, जब ये धर्मप्राण माताएँ अपने धर्मकी रक्षाके लिए अपने प्राणोंको भी हंसते-हंसते निछावर कर देती हैं तब उस चिथड़ेकी तो बात ही क्या ? यदि स्त्रियां वस्त्रको संयमका उपकारी समझकर उसे पहिनती हैं; तो पुरुष साधु भी यदि संयमके साधने के लिए उसकी स्थिरताके लिए वस्त्र पहिन लेते हैं तो क्या हानि है ? वस्त्र पहिन लेनेसे ही उनका परम चारित्र क्यों लजा जाता है ? $२७३. दिगम्बर-स्त्रियां तो अबला हैं, इनके शारीरिक अवयवोंकी रचना ही ऐसी है कि पुरुष पशु इनको लाज बलात्कार करके लूट सकते हैं, अतः वस्त्र पहिने बिना इनका संयम साधना इनके शीलकी रक्षा होना असम्भव है इसलिए स्त्रियोंका तो संयमकी रक्षाके लिए वस्त्र पहिनना उचित और आवश्यक है परन्तु पुरुषोंकी तो कोई जबरदस्ती लाज नहीं लटता. ये तो नग्न रहकर भी संयम साध सकते हैं अतः इनका वस्त्र पहिनना किसी भी तरह उचित तथा संयमका उपकारी नहीं माना जा सकता। १२७४. श्वेताम्बर-आपके उपरोक्त कथनसे यह तात्पर्य तो सहज ही निकल आता है कि वस्त्रके पहिनने मात्रसे स्त्रियोंके चारित्रका अभाव नहीं होता, वह तो उनके संयमका उसी तरह उपकारी है जिस प्रकार कि भोजन-पानी आदि शरीरकी स्थिरताके द्वारा संयमके उपकारक होते हैं। 'वस्त्रकी परिग्रहमें गिनती है अतः वह चारित्रमें बाधक होगा उसके पहिननेसे चारित्र नहीं हो सकता' यह कथन भी विचारणीय है। बताइए वस्त्र ममत्व परिणाम उत्पन्न करता है इसलिए परिग्रह रूप है, अथवा धारण करने मात्रसे, या छू लेने मात्रसे अथवा जीवोंको उत्पत्तिका स्थान होनेसे ? यदि वस्त्र ममताका कारण होनेसे परिग्रह रूप है, तो शरीर भी ममताका कारण होता है या नहीं ? 'शरीर ममताका कारण नहीं है' यह कथन तो नितान्त असंगत है; क्योंकि शरीर तो वस्त्रसे भी अधिक दुर्लभतर है। वस्त्रको फेंक देनेपर भी दूसरा इच्छानुकूल वस्त्र मिल सकता है । वस्त्र बाह्य है पर शरीरको छोड़ देनेपर इच्छानुकूल दूसरा शरीर मिलना असम्भव ही है वह अन्तरंग है। अतः अत्यन्त घनिष्ठ सम्बन्ध होनेके कारण शरीर तो और भी अधिक ममता उत्पन्न कर सकता है तथा करता भी है। यदि शरोर वस्त्रकी ही तरह ममताका उत्पादक है। तो उसे पहलेसे ही क्यों नहीं छोड़ते? क्या उसका छोड़ना वस्त्र त्यागको तरह अत्यन्त १. किमपरत्यागः भ २ । २. वस्त्रभोगः म. २ । ३.-अथवा म.। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy