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-का० ५२.६ २७२] जैनमतम् ।
३०१ संकरो बहुतरकायक्लेशसाध्य इति युक्तस्तदर्थोऽनेकोपवासादिकायक्लेशाधनुष्ठानप्रयासः; तमन्तरेण तत्संकरानुपपत्तेः, ततः कथंचिदनवच्छिन्नो ज्ञानसंतानोऽनेकविधतपोऽनुष्ठानान्मुच्यते, तस्य चानन्तचतुष्टयलाभस्वरूपो मोक्ष इति प्रतिपत्तव्यम् ।
$ २७१. अथात्र दिगम्बराः स्वयुक्तीः स्फोरयन्ति । ननु भवतु यथोक्तलक्षणो मोक्षः, परं स पुरुषस्यैव घटते न त्वङ्गनायाः, तथाहि-न स्त्रियो मोक्षभाजनं भवन्ति, पुरुषम्यो होनत्वात्, नपुंसकवत् ।
२७२. अत्रोच्यते-स्त्रीणां पुरुषेभ्यो हीनत्वं किं चारित्राद्यभावेन, विशिष्टसामर्थ्यासत्त्वेन, पुरुषानभिवन्द्यत्वेन, स्मा(क्षा)रणाद्यकर्तृत्वेन, अमहद्धिकत्वेन, मायादिप्रकर्षवत्त्वेन वा। तत्र न तावदाद्यः पक्षः क्षोदक्षमः; यतः किं चारित्राभावः सचेलत्वेन, मन्दसत्वतया वा। तत्र 'यद्याद्यपक्षः, तदा चेलस्यापि चारित्राभावहेतुत्वं कि परिभोगमात्रेण, परिग्रहरूपतया वा। यदि परिका नाश कर ही देता है। और वह परमयोगी योगी दूसरे ही क्षणमें परम मुक्तिको पा लेता है। परन्तु उस शुक्लध्यान रूपी तपमें वह विशिष्ट शक्ति पहले किये गये अनेकों उपवास आदि कठोर कायक्लेशसे ही आती है । अतः उस विशिष्ट शक्तिकी प्राप्तिके लिए अनेक उपवास, रसत्याग आदि कायक्लेश करना ही चाहिए। इन बाह्य तपोंको तपे बिना तपमें ऐसी शक्ति तथा कर्मोमें परिवर्तन नहीं हो सकता। इस तरह अन्वयी ज्ञान सन्तान ही अनेक प्रकारके अन्तरंग और बाह्य तपोंको तपनेसे कर्मों का नाश करके मोक्ष प्राप्त करती है। उस अन्वयी ज्ञान सन्तान-आत्माको अनन्त दर्शन, अनन्त ज्ञान, अनन्त सुख और अनन्तवीर्य इस अनन्तचतुष्टयवाले स्वरूपकी प्राप्ति होना ही मोक्ष है।
६२७१. दिगम्बर सम्प्रदाय वाले स्त्रियोंको मोक्ष नहीं मानते हैं, उनका अभिप्राय इस प्रकार है।
दिगम्बर-मोक्षका उक्त स्वरूप तथा उसकी सिद्धिका प्रकार तो वस्तुतः ऐसा ही है, परन्तु यह मुक्ति पुरुष ही पा सकते हैं, स्त्रियोंको अपनी उसी योनिवाली स्त्रीपर्यायसे मुक्ति नहीं मिल सकती। वे उस पर्यायको छोड़कर पुरुष शरीर धारण करने पर ही मुक्त हो सकती हैं। स्त्रियां मोक्ष नहीं जा सकती क्योंकि वे पुरुषोंसे हीन हैं जिस प्रकार नपुंसक-होजड़ा पुरुषोंसे हीन होने के कारण मोक्ष जाने की सामर्थ्य नहीं रखता उसी तरह स्त्रियाँ भी पुरुषोंसे हीन हैं, अबलाएँ हैं अतः वे भी अपने उस कमजोर शरीरसे मुक्तिका साधन नहीं कर सकतीं और न मोक्ष ही जा सकती हैं।
२७२. श्वेताम्बर-स्त्रियोंको पुरुषोंसे हीन या कमजोर क्यों समझा जाय ? क्या वे चारित्र आदि धारण नहीं कर सकतीं या उनमें विशिष्ट शक्ति नहीं है, अथवा पुरुष साधु उन्हें नमस्कार नहीं करते, या वे शास्त्रोंका पठन-पाठन या स्मरण नहीं करा सकतीं, दूसरोंको पाठका स्मरण नहीं कराती; किंवा उन्हें कोई लौकिक ऋद्धि सिद्धि प्राप्त नहीं होती अथवा उनमें तीव्र छल-कपट मायाचार आदि पाये जाते हैं ? पहला पक्ष तो 'चारित्र न होनेसे स्त्रियां कमजोर हैं' विचारको सहन नहीं कर सकता। आप बताइए कि स्त्रियोंको चारित्रका अभाव क्यों है ? यदि वे कपड़ा धारण करती हैं इसीलिए चारित्र नहीं पाल सकती; तो वस्त्र क्या पहिनने मात्रसे ही चारित्रका विघात कर देता है, अथवा परिग्रहरूप होनेसे उसमें ममता होनेसे चारित्र नहीं हो
१. -तयानुष्ठा-भ. २। २. “ततः स्त्रीणां न मोक्षः पुरुषम्यो हीनत्वात् नपुंसकादिवत् ।"न्यायकुमु. पृ. ८७६ । ३. -वः कि सचे-भ. २ । ४.-द्यः प-म. १, २, प. १,२।
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