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षड्दर्शनसमुच्चये
[ का० .५२ ६२६९तथाभूत एव चित्तसंताने मोक्षोपपत्तेः, बद्धो हि मुच्यते नाबद्धः। द्वितीयोऽनुपपन्नः; निरन्वये हि संतानेऽन्यो बध्यतेऽन्यश्च मुच्यते, तथा च बद्धस्य मुक्त्यर्थ प्रवृत्तिर्न स्यात्, कृतनाशादयश्च दोषाः पृष्ट(ट)लग्ना एव धावन्ति।
६२६९. तथा यदुक्तं 'कायक्लेश' इत्यादि; तदप्यसत्यम्; हिंसाविरतिरूपव्रतोपबृंहकस्य कायक्लेशस्य कर्मफलत्वेऽपि तपस्त्वविरोधात्, व्रताविरोधी हि कायक्लेशः कर्मनिर्जराहेतुत्वात्तपो. ऽभिधीयते। न चैवं नारकादिकायक्लेशस्य तपस्त्वप्रसङ्गः, तस्य हिंसाधावेशप्रधानतया तपस्त्वविरोधात', अतः कथं प्रेक्षावतां तेन समानता साधुकायक्लेशस्यापादयितुं शक्या।
$२७०. तदपि शक्तिसंकरपक्षे 'स्वल्पेन' इत्यादि प्रोक्तम्। तत्सूक्तमेव; विचित्रफलदानसमर्थानां कर्मणां शक्तिसंकरे सति क्षीणमोहान्त्यसमयेऽयोगिचरमसमये 'चाक्लेशतः स्वल्पेनैव शुक्लध्यानेन तपसा प्रक्षयाभ्युपगमात, जीवन्मुक्तेः परममुक्तेश्चान्यथानुपपत्तेः, सतु तच्छक्ति. स्वरूप है और इसे तो हम लोग भी मानते ही हैं अतः सिद्ध साधन है। जो बंधता है वही मुक्त होता है बिना बंधा नहीं। इस तरह बन्धनसे मोक्ष तक की अवस्थाओंमें उस चित्तसन्ततिकी वास्तविक सत्ता माननी चाहिए। चित्तसन्ततिको निरन्वय मानना तो किसी भी तरह उचित नहीं है। क्योंकि ऐसी चित्तसन्ततिको निरन्वय-पूर्व और उत्तर क्षणोंको परस्पर सम्बन्ध शून्य मानने पर तो बंधेगा कोई और छूटेगा कोई, जो बंधा है उसीकी मोक्षके लिए प्रवृत्ति नहीं होगी। इसी तरह कृतनाश आदि दोष इस पक्षके पीछे ही पीछे चले आयेंगे। तात्पर्य यह कि निरन्वय चित्तसन्तति मानने में 'करै कोई और भोगे कोई' आदि अनेक दोषोंका प्रसंग होगा।
२६९. आपने जो कायक्लेश रूप तपके बाबत कहा वह तो बिलकुल ही असत्य है; कायक्लेश भले ही कर्मका फल हो परन्तु जब वह अहिंसावतकी वृद्धिमें सहायता देता है तो उसे तप ही कहना चाहिए। जो कायक्लेश व्रतोंका अविरोधी है, अहिंसा और संयमकी स्थिरता करता है वह कर्मोंकी निर्जरामें कारण होनेसे तपरूप ही है। नारकी आदि जीवोंको होनेवाले कायक्लेशमें तो हिंसादिका आवेश पाया जाता है वह इच्छा निरोध करके स्वयं तपा नहीं जाता अतः उसे तप कैसे कह सकते हैं। अतः नारकियोंकी हिंसात्मक दुःखरूप शरीर पोड़ासे मुनियों के द्वारा इच्छापूर्वक तपे गये अहिंसात्मक कायक्लेशकी तुलना करना बुद्धिमानोंको तो शोभा नहीं देता।
२७०. आपने जो तपके द्वारा शक्ति संकर माननेसे स्वल्प उपवास आदिसे ही समस्त कर्मोंका क्षय होना चाहिए इत्यादि कहा है, वह आपने ठीक ही कहा है। वास्तवमें बात ऐसी ही है। जिसका मोह कर्म नष्ट हो गया है उस बारहवें गुणस्थानवर्ती क्षीणमोही व्यक्तिके थोड़े-से शुक्लध्यान रूपी तपसे विचित्र फल देनेवाले ज्ञानावरण आदि कर्मोंकी शक्तिमें परिवर्तन होकर उनमें संकर-एकरूपता आकर उनका नाश हो जाता है। और दूसरे ही क्षण वह क्षीणमोही व्यक्ति जीवन्मुक्त केवली हो जाता है। जिनके मन, वचन, कायके समस्त व्यापार रुक गये हैं उन चौदहवें गुणस्थानवर्ती अयोगी जीवोंका थोड़ा-सा ही शुक्लध्यान रूपी तप एक ही क्षणमें सब कर्मों
१. पृष्टित्य-भ. १, २, प. १, २, क.। २. तदसत्यम् आ.। ३. "हिंसादिविरतिलक्षणवृत्तोपबृहकस्य कायक्लेशकर्मफलत्वेऽपि तपस्त्वाविरोधात् ।"-न्यायकुम. पृ. ८४७ । ४. कर्मत्वेऽपि आ., क.। ५. -विरोधित्वात् - म. १, २, प. १, २। ६. कथं समानता प्रेक्षावता तेन साधु-म. ३। ७. -सयमयोगि-म.२। ८. चाक्लेशेन स्व-म. १, २, प.१,२। ९. प्रत्यया-आ., क.। १०. एतदन्तर्गतः पाठो नास्ति भ. १,२, प.१,२।
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