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________________ २९९ -का० ५२. ६२६८ ] जैनमतम् । ६२६७. किं च तेन मोक्षार्थानुष्ठानेन प्राक्तनस्य रागादिक्षणस्य नाशः क्रियते, भाविनो वानुत्पादः, तदुत्पादकशक्तेर्वा क्षयः, संतानस्योच्छेदः, अनुत्पादो वा, निराश्रय (स्रव) चित्तसंतत्युत्पादो वा, तत्राद्योऽनुपपन्नः, विनाशस्य निर्हेतुकतया भवन्मते कुतश्चिदुत्पत्तिविरोधात् । द्वितीयोऽप्यत एवासाधीयान्, उत्पादाभावो ह्यनुत्पादः, सोऽभावरूपत्वात्कथं तश्विदुत्पद्यते, अपसिद्धान्तप्रसङ्गात् । तच्छक्तेः क्षयोऽनुपपन्नः, तस्याप्यभावरूपतया निर्हेतुकत्वेन भवन्मते कुतश्चिदुत्पत्तिविरोधात् । संतानस्योच्छेदार्थोऽनुत्पादार्थो वा तत्प्रयास इत्यप्यनेन निरस्तम्, क्षणोच्छेदानुत्पादवत् । तयोरप्यभावरूपतयाँ निर्हेतुकत्वात्कुतोऽप्युत्पत्त्यनुपपत्तेः । कि च, वास्तवस्य संतानस्यानभ्युपगमालिक तदुच्छेदादिप्रयासेन । न हि मृतस्य मरणं वापि दृष्टम, तन्न संतानोच्छेदलक्षणा मुक्तिर्घटते। ६२६८. अथ निराश्रय ( स्रव ) चित्तसंतत्युत्पत्तिलक्षणा सा तत्प्रयाससाध्येति पक्षस्तु ज्यायान् । केवलं सा चित्तसंततिः सान्वया निरन्वया वेति वक्तव्यम् । आधे, सिद्धसाधनम्; ६२६७. अच्छा यह बताइए कि-मोक्ष के लिए जो प्रव्रज्या आदि धारण करते हैं उनसे क्या होता है ? क्या मौजद रागक्षणका नाश होता है. या आगे राग उत्पन्न नहीं हो पाता, अथवा रागको पैदा करनेवाली शक्तिका नाश हो जाता है, किंवा सन्तानका उच्छेद हो जाता है, अथवा रागादि सन्तति आगे उत्पन्न नहीं हो पाती, या निरास्रव चित्तसन्तति उत्पन्न हो जाती है ? प्रव्रज्यासे रागादिका नाश तो नहीं हो सकता; क्योंकि आपके मतसे विनाश तो निर्हेतुक है वह किसी प्रव्रज्या आदि कारणसे उत्पन्न नहीं हो सकता वह तो स्वतः ही होता है। रागादिके अनुत्पादका मतलब है रागादिके उत्पादका अभाव; सो वह भी उत्पादका नाश ही है, अतः उसका कारणोंसे उत्पन्न होना असम्भव है क्योंकि आप विनाशको निर्हेतुक मानते हैं। यदि रागादि नाशकी किसी प्रव्रज्या आदि कारणसे उत्पत्ति मानी जायेगी; तो आपके अहेतुक विनाशवाले सिद्धान्तका विरोध हो जायेगा। इसी तरह शक्तिका क्षय भी विनाश रूप ही है, अतः इसकी भी उत्पत्ति कारणोंसे नहीं हो सकती। इसी प्रकार सन्तानका उच्छेद या उसका अनुत्पाद-उत्पादाभाव भी विनाशरूप होनेसे क्षणोंके नाश और अनुत्पादकी तरह निर्हेतुक ही होंगे अतः इनके लिए भी प्रव्रज्या आदि अनुष्ठानोंका कोई उपयोग नहीं है। आप सन्तानको तो वास्तविक मानते ही नहीं हैं उसे तो आप काल्पनिक कहते हैं तब ऐसी काल्पनिक सन्तानके उच्छेदके लिए क्यों प्रयत्न किया जाय । वह तो काल्पनिक होनेसे है ही नहीं, बिचारी अपने ही आप अच्छिन्न है। इस मरी हुई सन्तानको मारने के लिए इतनी दुष्कर प्रव्रज्या आदिका धारण करना महज सनकीपन ही है । इस तरह सन्तानोच्छेद रूप मुक्ति किसी भी प्रमाणसे सिद्ध नहीं होती। २६८. हाँ, 'जो चित्तसन्तति पहले सास्रव-अविद्या और तृष्णासे संयुक्त थी, प्रव्रज्या आदि अनुष्ठानोंसे वही चित्तसन्तति निरास्रव-अविद्या तष्णासे रहित हो जाती है। आपका यह विचार उचित प्रतीत होता है। केवल उस चित्तसन्ततिको सान्वय तथा वास्तविक मानना चाहिए । बताइए-आप उसे सान्वय मानना चाहते हैं या निरन्वय ? निरास्रव चित्तसन्ततिको सान्वय-वास्तविक रूपसे पूर्व उत्तर क्षणोंमें अपनी सत्ता रखनेवाली-मानना ही सच्चा मोक्षका १. "तेन हि प्राक्तनस्य रागादिचित्तलक्षणस्य नाशः क्रियेत, भाविनो वानुत्पादः तदुत्पादकशक्तर्वा क्षयः, संतानस्य वोच्छेदः-अनुत्पादो वा, निरास्रवचित्तसंतत्युत्सादो वा।"-न्यायकुमु. पृ. ८४२ । २. दो वानुत्पा-प. १, २, भ.१।-दो वानुच्छेदो वा निराश्रयः चित्त-म. २। ३. च्छेदोऽनुत्पादा-म.२ । ४. भावतया निर्हेतुकतया कु-भ. २। ५. दा युक्ति-म. २। ६. निराश्रयरूपचित्त-आ. क. । ७. साध्येत्यपि प-म.२। ८. "केवलं सा चित्तसंततिः सान्वया, निरन्वया वा" इति वक्तव्यम्।" -न्यायकुम. पू. ८४४ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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