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षड्दर्शनसमुच्चये
[ का. ५२. ९२६५
व्यवस्था लोके प्रसिद्धा । इह स्वन्यः क्षणो बद्धोऽन्यस्य च तन्मुक्तिकारणपरिज्ञानमम्यस्य चानुष्ठानाभिसंधेर्व्यापारश्चेति वैयधिकरण्यात्सर्वमयुक्तम् ।
६ २६५. कि च, सर्वो बुद्धिमान् बुद्धिपूर्वं प्रवर्तमानः किंचिदिवमतो मम स्यादित्यनुसंधानेन प्रवर्तते । इह च कस्तथाविधो मार्गाभ्यासे प्रवर्तमानो मोक्षो मम स्यादित्यनुसंदध्यात् क्षणः, संतानो वा । न तावत्क्षणः, तस्यैकक्षणस्थायितया निर्विकल्पतया चैतावतो व्यापारान् कर्तुमसमर्थत्वात् । नापि संतानः; तस्य संतानिव्यतिरिक्तस्य सौगतैरनभ्युपगमात् ।
$ २६६. किं च, निरन्वयविनश्वरत्वे च संस्काराणां मोक्षार्थः प्रयासों व्यर्थ एव स्यात्, यतो रागाद्युपरमो हि भवन्मते मोक्षः, उपरमश्च विनाशः, स च निर्हेतुकतयाग्यत्नसिद्धः, ततस्तदर्थोऽनुष्ठानादिप्रयासो निष्फल एव ।
व्यवस्था हो सकती है ।
माननेपर ही 'जो बँधा है वही छूटा' इस प्रकारकी बन्ध-मोक्षकी नियत संसार में भी बँधना और छूटना एक अधिकरणमें ही देखे जाते हैं। पर आप तो जब किसी अनुयायी आत्माकी सत्ता ही नहीं मानते तब अन्य ज्ञानक्षण बँधेगा तो छूटनेके कारणोंका ज्ञान किसी दूसरे ज्ञानक्षणको होगा तो उन उपायोंके आचरण करनेकी इच्छा किसी तीसरेको होगी और आचरण कोई चौथा ही क्षण करेगा, इस तरह सभी बातें भिन्न-भिन्न ज्ञानक्षणों को होंगी तब बन्ध-मोक्ष आदिकी व्यवस्था किसी भी तरह नहीं बन सकेगी ।
$ २६५. संसारमें कोई भी बुद्धिमान् जब किसी कार्य में जान-बूझकर प्रवृत्ति करता है तो यह सोचकर ही उसमें प्रवृत्त होता है कि - ' इस कार्यके करने से मुझे अमुक लाभ होगा' अब आप बताइए कि आपके यहां मोक्षमार्ग के अभ्यास में प्रवृत्ति करनेवाला तथा 'इससे मुझे मोक्ष होगा' इस अभिप्रायको रखनेवाला विचारक कौन है ? ऐसा विचार ज्ञानक्षण करेंगे या सन्तान ? ज्ञानक्षण तो एक ही क्षण तक ठहर कर नष्ट हो जानेवाले हैं तथा निर्विकल्पक हैं, अतः वे इतना लम्बा विचार नहीं कर सकते । इतना बड़ा विचार तो दस बीस क्षण तक ठहरनेवाला सविकल्प ज्ञान ही कर सकता है। परस्पर भिन्न ज्ञानक्षणरूप सन्तानियोंसे पृथक् सत्ता रखनेवाली सन्तान तो बौद्ध मानते ही नहीं हैं, अतः जिस तरह क्षणिक ज्ञानक्षण उतना लम्बा विचार नहीं कर सकते उसी तरह उन ज्ञानक्षणरूप सन्तान भी उस विचारको करनेमें समर्थ नहीं हो सकती । $ २६६. जब आपके यहाँ सभी पदार्थ क्षणिक हैं तथा रागादि संस्कार भी दूसरे क्षण में निरन्वय-समूल नष्ट हो जाते हैं; तब रागादिका नाश भी अपने ही आप हो जायेगा, और मोक्षकी प्राप्ति भी स्वतः ही हो जायेगी, अतः सिर मुड़ाकर कषायसे वस्त्र धारण कर बुद्ध दीक्षा लेना व्यर्थ ही है, क्योंकि आपने रागादिके उपरमको ही मोक्ष माना है । उपरम का अर्थ है नाश । और नाश तो आपके यहाँ निर्हेतुक है, वह कारणों से नहीं होता किन्तु स्वभावसे ही अपने आप हो जाता है | अतः रागादिका नाश भी अपने ही आप अनायास ही हो जानेवाला है उसके लिए प्रव्रज्या लेना आदि प्रयत्न करना निरर्थक ही है ।
१. ' - न बन्धमोक्षौ क्षणिक संस्थो -- क्षणिकमेकं यच्चित्तं तत्संस्थो बन्धमोक्षो न स्याताम् । यस्य चित्तस्य बन्धः तस्य निरन्वयप्रणाशादुत्तरचित्तस्याबद्धस्यैव मोक्षप्रसङ्गात् । यस्यैव बन्धः तस्यैव मोक्ष इति एकचित्तसंस्थो बन्धमोक्षौ ।” - युक्त्यनु. टी. पृ. ४१ । न्यायकमु. पृ. ८४२ । २. " इह च कस्तथाविधो मार्गाभ्यासे प्रवर्तमानः 'मोक्षो मम स्यात्' इत्यनुसंदध्यात् - क्षणः संतानो वा । न्याय. कुमु. पृ. ८४२ । ३. "अहेतुकत्वान्नाशस्य हिंसा हेतुर्न हिंसकः । वित्तसंततिनाशश्च मोक्षो नाष्टाङ्गहेतुकः ॥ " - आप्तमी. का. ५२ । युक्त्यनु. टी. पृ. ४० । “निर्हेतुकतया विनाशस्य उपाय वैयर्थ्यम्, अयत्नसाध्यत्वात् - प्रश. व्यो. पृ. २० । न्यायकुमु. पृ. ८४३ ।
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