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-का० ५२. ६ २६४]
जैनमतम्। ६२६३. यत्पुनरुक्तं 'आत्मानं यः पश्यति' इत्यादि तत्सूक्तमेव; कित्वज्ञो जनो दुःखानुषक्तं सुखसाधनं पश्यन्नात्मस्नेहात्सांसारिकेषु दुःखानुषक्तसुखसाधनेषु प्रवर्ततेऽपथ्यादौ मूर्खातुरवत् । हिताहितविवेचकस्तु तादात्विकसुखसाधनमङ्गनादिकं परित्यज्यात्मस्नेहादात्यन्तिकसुखसाधने मुक्तिमार्गे प्रवर्तते, पथ्यादौ चतुरातुरवत्।
२६४. यवप्युक्तं 'मुक्तिमिच्छता' इत्यादि; तदप्यज्ञानविजृम्भितम्; सर्वथाऽनित्यानात्मकत्वादिभावनाया निर्विषयत्वेन मिथ्यारूपत्वात्सर्वथा नित्यादिभावनावन्मुक्तिहेतुत्वानुपपत्तेः। नहि कालान्तरावस्थाय्येकानुसंधातृव्यतिरेकेण भावनाप्युपपद्यते। तथा यो हि निगडादिभिर्बद्धस्तस्यैव तन्मुक्तिकारणपरिज्ञानानुष्ठानाभिसंधिव्यापारे सति मोक्षः, इत्येकाधिकरण्ये सत्येव बन्धमोक्ष
२६३. आपने जो 'आत्मदर्शीको संसार होता है' इत्यादि विवेचन किया है, वह किसी हद तक अच्छा है । बात यह है कि-अज्ञानी मोही आत्मा दुःखसे मिश्रित सुख-साधनोंको देखकर आत्माके मिथ्यारागसे उस दुःख मिश्रित सांसारिक सुखके स्त्री-पुत्रादि साधनोंको जुटाने में प्रवृत्ति करता है । जिस तरह कोई मूर्ख रोगी अपथ्यको ही पथ्य मानकर खा लेता है और दिन दूना रोगमें फंसता जाता है, उसी तरह यह मूढ़ आत्मा दुःखको ही सुख मानकर स्त्री-पुत्रादिमें समता करके राग करता है और संसारके जालमें उलझता जाता है। परन्तु जो विवेकी हैं जिन्हें हित और अहितका यथार्थ परिज्ञान है वे ज्ञानी जीव इस मिथ्या सांसारिक सुखके कारण स्त्री आदिको छोड़कर आत्माके शुद्ध स्वरूप में प्रेम करके अतीन्द्रिय सुखके साधनभूत मोक्षमार्गमें प्रवृत्ति करते हैं । जिस तरह समझदार रोगी वैद्यके द्वारा बताये गये पथ्यका सेवन कर जल्दी ही नीरोग हो जाता है उसी तरह आत्माके यथार्थ स्वरूपकी प्राप्तिके उपायोंका आचरण करनेसे आत्माके परम अतीन्द्रिय सुख स्वरूपकी भी प्राप्ति सहज ही हो जाती है।
२६४. आपने जो मुमुक्षुओंके लिए अनित्यत्व आदि भावनाएं बतायी हैं वह तो सचमुच आपके अज्ञानका ही फैलाव है । संसारमें पदार्थ ही जब सर्वथा अनित्य नहीं है तब सर्वथा अनित्यत्व आदिकी निविषयक काल्पनिक मिथ्या भावनाएं मोक्षमें कारण नहीं हो सकतीं। जिस तरह संसारमें सर्वथा नित्य पदार्थ कोई नहीं है उसी तरह सर्वथा अनित्य पदार्थको सत्ता भी संसारमें नहीं है । अतः जैसे सर्वथा नित्यत्वको भावना निर्विषयक है और उस मिथ्या काल्पनिक भावनासे मोक्षकी प्राप्ति नहीं होती उसी तरह सर्वथा क्षणिकत्वकी मिथ्या भावना भी मोक्षकी प्राप्तिमें किसी भी तरह सहायक नहीं हो सकती। जबतक अनेक ज्ञान क्षणोंमें रहनेवाला एक भावना करनेवाला पूर्व और उत्तरका अनुसन्धान करनेवाला आत्मा नहीं माना जायेगा तबतक भावनाएं बन ही नहीं सकतीं। देखो, जो व्यक्ति बेड़ी आदि बन्धनोंमें पड़ा है वही जब उन बन्धनोंके काटनेका ज्ञान, काटनेकी इच्छा तथा तदनुकूल प्रयत्न करता है तब उसीके बन्धन कटकर उसीको मुक्ति मिलती है इस तरह बंधनेसे लेकर कारणोंका ज्ञान इच्छा प्रयत्न आदि छूटने तकको सब बातें जब एक ही आत्मामें होती हैं तभी छूटनेकी भावना तथा उससे छूटना सम्भव होता है। एक अनुयायी आत्मा
१. किन्तु अज्ञो जनः दुःखाननुषक्तसुखसाधनमपश्यन् आत्मस्नेहात् सांसारिकेषु दुःखानुषक्तसुखसाधनेषु प्रवर्तते। हिताहितविवेकस्तु-"-न्यायकुम. पृ. ८४२। स्या. र. पृ. १११८ । २. -दो मुर्खा-आ., क.। ३. -विवेकस्तु म. १, प. २ ४.-कस्त्वतात्विक-आ., क. । ५. "क्षणिकादिभावनाया मिथ्यारूपत्वात्, न च मिथ्याज्ञानस्य निःश्रेयसकारणत्वमतिप्रसङ्गात् ।"प्रश. व्यो. पृ. २० घ.। "भावनाया विकल्पात्मिकायाः" श्रुतमय्याश्चिन्तामय्याश्चावस्तुविषयाया वस्तुविषयस्य योगिज्ञानस्य जन्मविरोधात् । कुतश्चिदतत्त्वविषयाद विकल्पज्ञानात्तत्त्वविषयस्य ज्ञानस्यानुपलब्धः।-आप्तप. का. ८३। तरवार्थश्लो. पृ. २१ । षड्द. बृह. इलो, ५२ । न्यायकुमु. पृ. ८४२ । ३८
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