________________
षड्दर्शनसमुच्चये [का० ५२.६२६२न्यिथानुपपत्तेः। उक्तंच
• "कर्मक्षयाद्धि मोक्षः स च तपसस्तच्च कायसंतापः। कर्मफलत्वान्नारकदुःखमिव कथं तपस्तत्स्यात् ॥१॥ अन्यदपि चैकरूपं तच्चित्रक्षयनिमित्तमिह न स्यात् ।
'तच्छक्तिसंकरः क्षयकारीत्य िवचनमात्रम् ॥२॥" तस्मानरात्म्यभावनाप्रकर्षविशेषाच्चिसस्य नि:क्लेशावस्था मोक्षः।
६२६२. अत्र प्रतिविषीयते। तत्र यत्तावदुक्तं 'ज्ञानक्षणप्रवाह' इत्यादि; तदविचारितविलपितम्; ज्ञानक्षणप्रवाहव्यतिरिक्त मुक्ताकणानुस्यूतसूत्रोपममन्वयिनमात्मानमन्तरेण कृतनाशाकृतागमादिदोषप्रसक्तेः स्मरणाद्यनपपत्तेश्च । हो ही जायेगा, तब भावनाओंके ऊपर इतना जोर देनेका क्या कारण है ?
समाधान-तब मामूली उपवास आदि कायक्लेशसे भी सभी कर्मोंकी शक्तिमें परिवर्तन होकर उनमें एकरूपता हो जाय और उन कर्मोका नाश हो जाना चाहिए, क्योंकि आप तो तप और कर्मों की शक्तिके मिश्रणमें ऐसी ही शक्ति बताते हैं जिससे विचित्र शक्तिवाले कर्मोंकी विचित्रता परिवर्तित होकर एकरूपता बन जाती है और एक रूपवाले तपसे एक रूपवाले कर्मों का नाश सहज ही हो जाता है। कहा भी है-“कर्मोंके क्षयसे मोक्ष होता है, और कर्मोंका क्षय होता है तपसे । जब तप मात्र कायक्लेश रूप ही है, जो कि नारकी जीवोंके दारुण दुःखकी तरह मात्र पूर्वकृत कर्मोंका फल हो हो सकता है, तो उन कर्मोके फलरूप कायक्लेशको तप कैसे कह सकते हैं ? अन्यथा नारकियोंके कायक्लेशको भी तप कहना चाहिए.। एकरूप तपसे विचित्र शक्तिवाले कर्मोका क्षय होना तो नितान्त असम्भव है। तपको कर्मोकी शक्तिमें परिवर्तन करके उनमें संकरएकरूपता लानेवाला मानकर कर्मोका क्षय करनेवाला कहना अथवा तप और कर्मोंकी मिश्रित शक्तिको कर्मक्षय करनेवाला कहना तो केवल बकवाद करना ही है । तपमें ऐसी शक्ति हो ही नहीं सकती।" इस तरह 'आत्मा नहीं है या संसार निरात्मक है-आत्मस्वरूप नहीं है' इस प्रकारको नैरात्म्य भावना जब उत्कृष्ट अवस्थामें पहुंच जाती है तब उसके द्वारा चित्तके अविद्या तृष्णा आदि क्लेशोंका नाश होकर उसको निःक्लेश अवस्थाका नाम ही मोक्ष है। यही चित्त जब अविद्या तृष्मा रूप आस्रवसे युक्त होता है तब संसार कहलाता है और जब अविद्या तृष्णारूप क्लेशोंका, आस्रवोंका नाश होकर वह निरास्रव निःक्लेश हो जाता है तब वही मोक्ष कहा जाता है।
६२६२. जैन ( उत्तरपक्ष )-आपने जो ज्ञानप्रवाहको ही आत्मा कहा है वह तो सचमुच बिना विचारे ही यद्वा तद्वा कुछ कह दिया है। यदि मोतियोंमें पिरोये गये धागेकी तरह पूर्व तथा उत्तर ज्ञानक्षणोंमें आत्मस्वरूपसे अनुयायी कोई आत्मा नहीं है, तब कृतनाश अकृतागम आदि दोष होंगे। जिस ज्ञानक्षणने किसी जीवकी हत्या को वह तो उसी समय नष्ट हो जायेगा अतः उसे तो अपने कियेका कुछ भी फल नहीं मिला, यह तो कृतनाश हुआ। और अन्य जिस ज्ञानक्षणने हत्या नहीं की उस बिचारेको हत्याके अपराधमें फांसीको सजा मिलो, यह हुआ अकृतका आगम 'करे कोई और भोगे कोई इस नियमसे तो जगत् अन्धेर नगरी बन जायेगा। जिसे हमने रुपये दिये थे वह भी नष्ट हो गया तथा हम भी, तब कोन किससे स्मरण करके रुपयेका लेन-देन करेगा? जिसने पदार्थोंका अनुभव किया था जब वह समूल नष्ट हो गया तब स्मरण प्रत्यभिज्ञान आदि कैसे हो सकेंगे?
। २. तत्कर्मशक्ति-म.२
३. करक्षय प.१,२। ४. क्षयकारी
१. तच्चित्रं क्षय-भ. -आ. क..
'
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org