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- का. ५२. ९२६१]
जनमतम् ।
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ततो मुक्तिमिच्छता पुत्रकलत्रादिकं स्वरूपं चानात्मकमनित्यमशुचि दुःखमिति श्रुतमय्या चिन्तामय्या च भावनया भावयितव्यम् एवं भावयतस्तत्राभिष्वङ्गाभावादभ्यासविशेष । द्वैराग्यमुपजायते, ततः सास्रवचित्तसंतानलक्षणसंसारविनिवृत्तिरूपा मुक्तिरुपपद्यते ।
२६०. अथ तद्भावनाभावेऽपि कायक्लेशलक्षणात्तपसः सकलकर्मप्रक्षयान्मोक्षो भविष्यतोति चेत्; न; कायक्लेशस्य कर्मफलतया नारकाविकाय संतापवत् तपस्त्वायोगात् । विचित्रशक्तिकं चकर्म, विचित्रफलदानान्यथानुपपत्तेः । तच्च कथं कायसंतापमात्रात् क्षीयते, अतिप्रसङ्गात् ।
$ २६१. अथ तपःकर्मशक्तीनां संकरेण 'क्षयकरणशीलमिति कृत्वा एकरूपादपि तपसचित्रशक्तिकस्य कर्मणः क्षयः । नन्वेवं" स्वल्पक्लेशेनोपवासादिनाप्यशेषस्य कर्मणः क्षयापत्तिः, शक्तिसांक
दूसरे पदार्थं 'पराये' माने जायें। और इस स्वं और परका विभाग होते ही स्व-अपनेका परि ग्रह - राग तथा परसे द्वेष होने लगता है । इन परिग्रह और द्वेषके होते ही क्रोध, मान, काम, लोभ आदि अनेकों दोष आकर अपना अधिकार जमा लेते हैं; क्योंकि ये सब छोटे-मोटे दोष राग-द्वेषकी सेनाके ही सैनिक रूप हैं ।" अतः जिस व्यक्तिको मुक्ति चाहना है उसे पुत्र, स्त्री आदि पदार्थोंको अनात्मक - आत्मस्वरूपसे भिन्न, अनित्य, अशुचि तथा दुःखरूप देखना चाहिए। और श्रुतमयीशास्त्राभ्यास या शब्दसे होनेवाला परार्थानुमान - तथा चिन्तामयी स्वयं विचारना या स्वार्थानुमान - भावनाओं उक्त विचारोंको खूब दृढ़ करना चाहिए— उनकी बारम्बार भावना करते रहना चाहिए। इस तरह संसार के समस्त स्त्री-पुत्रादि पदार्थोंमें अनित्य आत्मा आत्मस्वरूप से भिन्न तथा दुःखादिरूप भावना भानेसे इनसे ममत्व हटकर धीरे-धीरे वैराग्य हो जायेगा । इस वैराग्य से अविद्या और तृष्णा रूप आस्रवसे युक्त चित्तसन्तति स्वरूप संसारका नाश हो जायेगा । यही अविद्या तृष्णायुक्त चित्त सन्ततिका नाश ही मोक्ष है ।
$ २६०. शंका- इस तरहकी अनित्य या दुःख रूप भावना न भाकर भी जब कायक्लेश रूप तपसे भी समस्त कर्मोंका नाश होकर मुक्ति हो सकती है तब आप भावनाओंपर ही अधिक भार क्यों देते हैं ?
समाधान - जिस प्रकार नरकके दुःख पूर्वकृत कर्मों के फल हैं, उसी तरह कायक्लेश भी पूर्वकृत कर्मों का फल ही है, उसे तप ही नहीं कह सकते । तप तो इच्छाओंका निरोध करके स्वयं किया जाता है पर यह कायक्लेश तो कर्मके फलसे होता है किया नहीं जाता । कर्मोंकी विचित्र शक्तियाँ जिनसे नाना प्रकारके कायक्लेश आदि रूप फल मिलते हैं । ऐसे विचित्रफल देनेवाले विचित्र शक्तिधारी कर्म मामूली शरोरको क्लेश देनेवाले तपसे कैसे नष्ट किये जाते हैं ? एकरूप कारण अनेक रूपवाली वस्तुको नष्ट नहीं कर सकता ।
$ २६१. शंका - तपमें ऐसी शक्ति है जिससे वह कर्मोंकी संकर - एक रूप बनाकर उनका नाश कर देता है। अथवा तप . कर कर्मोंका नाश कर देगो, अतः एक रूपवाले अकेले तपसे ही
१. " तत्र श्रुतमयी श्रूयमाणेभ्यः परार्थानुमानवाक्येभ्यः समुत्पद्यमानेन श्रुतशब्दवाच्यतामास्कन्दता निर्वृत्ता परं प्रकर्ष प्रतिपद्यमाना स्वार्थानुमानलक्षणया चिन्तया निवृत्तां चिन्तमयो भावनामारभते ।" —आप्तप. का. ८३ । २. त्रानभिम. २ । ३. 'फलवैचिभ्यदृष्टेश्व शक्तिभेदोऽनुमीयते । कर्मणां तापसंक्लेशात् नैकरूपात्ततः ( क्षयः ) ॥ फलं कथंचित्तज्जन्यारूपं स्यात् न विजातिमत् । अथापि तपसः शक्त्या शक्तिसंकरसंक्षयैः । क्लेशात् कुतश्चिद्धीयेता शेषमक्लेशलेशत: । यदीष्टमपरं क्लेशात् तत्तपः क्लेश एव चेत् । तत् कर्मफलमित्यस्मात् न शक्तः संकरादिकम् ॥” - प्र. वा. ११२७६-७८ । ४. क्षयसंकरेण शोभ. २ । ५. तन्नैवं भ, २ । ६. पत्तिशक्तिः सा-भ. २
उद्धृतौ इमौ । न्यायकुमु.
पृ. ८४१ । स्था. र. पु. १११८ ।
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शक्ति में परिवर्तन करके उन्हें और पूर्व कर्म दोनों की शक्ति मिल विचित्र शक्तिवाले कर्मोका क्षय
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