SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 319
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ - का० ५२. ९२५८ ] जैनमतम् । २९३ पुरुषस्य वा । न प्रकृतेः; 'तस्या असंवेद्यपर्वणि स्थितेत्वावचेतनत्वाद नभ्युपगमाच्च । नाप्यात्मनः, तस्याप्यसंवेद्यपर्वणि स्थितत्वात् । $ २५८. तथा यदपि 'विज्ञातविरूपाहम्' इत्याद्युक्तम्, तवप्यसमीक्षिताभिधानम्, प्रकृतेर्जडतयेत्थं विज्ञानानुपपत्तेः । किं च, विज्ञातापि प्रकृतिः संसारदशावन्मोक्षेऽप्यात्मनो भोगाय स्वभावतो वायुवत्प्रवर्ततां तत्स्वभावस्य नित्यतया तदापि सस्वात् । नहि प्रवृत्तिस्वभावो वायुविरूपतया येन ज्ञातस्तं प्रति तत्स्वभावादुपरमत इति कुतो मोक्षः स्यात् । तदा तदसत्त्वे वा प्रकृते नित्यैकरूपताहानिः पूर्वस्वभावत्या गेनोत्तरस्वभावोपादानस्य नित्यैकरूपतायां विरोधात्, परिणामिनि नित्य एव तदविरोधात् । प्रकृतेश्च परिणामिनित्यत्वाभ्युपगमे आत्मनोऽपि तदङ्गीकर्तव्यं तस्यापि प्राक्तन सुखोपभोक्तृस्वभावपरिहारेण मोक्षे तदभोक्तृस्वभावस्वीकारात्, अमुक्तादिस्वभावत्यागेन मुक्तत्वादिस्वभावोपादानाच्च । सिद्धे चास्य परिणामिनित्यत्वे सुखादिपरिणामैरपि परिणामित्वम तो ऐसी विवेकख्याति प्रकृतिको होती है या पुरुषको ? प्रकृतिको तो नहीं हो सकती; क्योंकि वह स्वयं असंवेद्यपर्व - जहाँ किसी पदार्थका ज्ञान नहीं होता - में स्थित है अर्थात् ज्ञानसे शून्य है, अचेतन है और आप स्वयं प्रकृतिमें विवेकख्याति मानते भी नहीं हैं । इसी तरह आत्माको भी विवेकख्याति-भेद विज्ञान नहीं हो सकती; क्योंकि वह भी स्वयं असंवेद्यपर्व में स्थित होनेसे अज्ञानी है - ज्ञानशून्य है । $ २५८. जो आपने कहा था कि प्रकृति भी समझ लेती है कि पुरुषने मुझे कुरूपा समझ लिया है इत्यादि; वह तो निरा बेसमझोका कथन है; क्योंकि जब प्रकृति अचेतन है, जड़ है, तब वह इतनी समझदार कैसे हो सकती है ? इतना परिज्ञान किसी भी जड़ या अचेतन पदार्थको कभी भी सम्भव नहीं है । मान लो कि पुरुषने उसे कुरूपा समझ भी लिया है तब भी अचेतन प्रकृतिको संसारदशाकी तरह मोक्ष अवस्था में भी स्वभावसे ही भोगके लिए पहुँच जाना चाहिए जिस तरह कि वायु स्वभावसे ही सर्वत्र चलती रहती है। प्रकृतिका 'पुरुषके पास भोगको जाना' रूप स्वभाव तो नित्य होने से सदा बना ही रहता है, अतः बिना रोक-टोक मोक्षमें भी पुरुषके पीछे लगकर भोगकी सृष्टि करनी चाहिए। मान लो किसी आदमीको वायु अच्छी नहीं लगती या वायुसे चिढ़ है, तो क्या स्वभावतः बहनेवाली वायु उस आदमी से बच करके किनाराकशी करके चलेगी ? इस तरह जब मुक्त आत्माओं के पास भी भोगके निमित्त प्रकृति पहुंच जायेगी तब मोक्ष कहाँ रहा ? वह तो भूमि ही हो जायेगा । यदि उस समय प्रकृतिका पुरुष भोगरूप स्वभाव नष्ट हो जाता है; तो वह नित्य एक रूप नहीं रह सकेगी; क्योंकि जिस पदार्थमें किसी एक पूर्वस्वभावका त्याग तथा नये स्वभावका उत्पाद होता है वह नित्य एक रूप नहीं रह सकता । परिणामी नित्य पदार्थ में ही पूर्वस्वभावका त्याग तथा उत्तर स्वभाव के ग्रहणकी व्यवस्था हो सकती है । यदि प्रकृति परिणामी - परिवर्तनशील होकर भी नित्य है; तो आत्माको भो कूटस्थनित्य न मानकर परिणामो नित्य ही मानना चाहिए । आत्मा भी तो मोक्ष अवस्था में अपने पहले के भोगीस्वभावको छोड़कर अब एक नये योगी - अभोगी - स्वभावको धारण करता है, अस्तु-संसारी स्वभावको छोड़कर मुक्त स्वभावको ग्रहण करता है । इस तरह जब आत्मा कूटस्थ नित्यकी जगह परिणामी नित्य सिद्ध हो गया तब उसमें सुख ज्ञान आदि परिणाम भी मान लेने चाहिए । यदि उसका अनन्त सुख ज्ञान आदि रूप से १. " तस्याः असंवेद्यपर्वणि स्थितत्वात्, अविद्रूपत्वात्, अनभ्युपगमाच्च ।” - न्यायकुमु. पृ. ८२२ । २. -तत्त्वादभ्यु-म. २ । ३. " प्रकृतेर्जडया इत्थं विज्ञानानुपपत्तेः - न्यायकुमु. ८२२ । ४. - णामिनित्य - म. २ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy