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________________ २९२ षड्दर्शनसमुच्चये [का० ५२.६२५६भयोरप्यविशेषात् नियामकाभावाच्च । द्वितीयपक्षे स आत्मा प्रकृत्यात्मनोः संयोगे हेतुत्वं प्रतिपद्यमानः किं स्वयं प्रकृतिसहकृतः सन् हेतुर्भवति तद्वियुक्तो वा। आधे तस्यापि प्रकृतिसंयोगः कथमित्यनवस्था। द्वितीये पुनः स प्रकृतिरहित आत्मा शुद्धचैतन्यस्वरूपः सन् किमर्थ प्रकृत्यात्मनोः संयोगे हेतुत्वं प्रतिपद्यते। तत्र कोऽपि हेतुर्विलोक्य इति तदेवावर्तत इत्यनवस्था। इति सहेतुकः 'प्रकृत्यात्मसंयोगो निरस्तः। अथ निर्हेतुकः; तर्हि मुक्तात्मनोऽपि प्रकृतिसंयोगप्रसङ्गः। २५६. किं च, अयमात्मा प्रकृतिमुपाददानः पूर्वावस्थां जह्यात्, न वा। आद्ये अनित्यत्वापत्तिः। द्वितीये तदुपादानमेव दुर्घटम् । न हि बाल्यावस्थामत्यजन् देवदत्तस्तरुणत्वं प्रतिपद्यते । तेन्न कथमपि सांख्यमते प्रकृतिसंयोगो घटते ततश्च संयोगाभावाद्वियोगोऽपि दुर्घट एव, संयोगपूर्वकत्वाद्वियोगस्य। $२५७. किं च, यदुक्तं "विवेकख्यातेः' इत्यावि; तदविचारितरमणीयम् । तत्र केयं ख्यातिनाम प्रकृतिपुरुषयोः स्वेन स्वेन रूपेणावस्थितयोर्भवेन प्रतिभासनमिति चेत्; सा कस्य-प्रकृतेः प्रकृतिके साथ संयोग करनेमें कारण होती है उसी तरह वह मुक्तात्माओंके साथ अपना संयोग क्यों नहीं करा देती? प्रकृति संयोगके पहले तो संसारी और मुक्त दोनों ही आत्माएं शुद्ध चैतन्यस्वरूपवाली ही हैं उनमें कुछ भी ऐसी विशेषता नहीं है जिससे संसारी आत्माके ही साथ प्रकृति संयोगको अवसर मिले । यदि आत्मा प्रकृतिसंयोगमें कारण है; तो वह आत्मा जब प्रकृति संयोगमें कारण होता है तब वह अकेला ही बिना प्रकृतिके कारण हो जाता है या प्रकृतिके साथ ? यदि प्रकृति सहित होकर आत्मा प्रकृतिसंयोगमें कारण होता है; तो 'यह प्रकृतिका संयोग किससे हुआ-प्रकृतिसे या आत्मासे' इस प्रश्नको बार-बार दुहरानेसे अनवस्था दूषण होगा। यदि अकेला ही कारण होता है तब वही प्रश्न फिर होगा कि-'प्रकृति रहित, शुद्ध चैतन्यस्वरूपी पुरुष किस कारणसे आत्मा और प्रकृति संयोगमें कारण होता है ? उसमें कोई हेतु है या नहीं' इस तरह इसी प्रश्नके बराबर चालू रहनेसे अनवस्था नामका दूषण होगा। इस तरह प्रकृति और आत्माका सहेतक तो सिद्ध नहीं हो पाता। यदि प्रकृति संयोग नितक माना जाय; तो मुक्त आत्माओंसे भी प्रकृतिका संयोग हो जाना चाहिए। ६२५६. यह आत्मा जिस समय प्रकृतिको ग्रहण करता है उस समय अपने पहलेके अकेलेपनको छोड़ता है या नहीं ? यदि अपने अकेलेपनको छोड़ देता है; तो परिवर्तन होनेके कारण अनित्य हो जायेगा । यदि अकेलेपनको नहीं छोड़ता; तब वह प्रकृतिको ग्रहण करके दुकेला बन ही नहीं सकता। जिस देवदत्तने अपना बचपन नहीं छोड़ा है वह जवान कैसे हो सकता है ? जवानीका आना बचपनको त्यागे बिना हो ही नहीं सकता। जब तक पुरुष अपना कुंआरापनअकेलापन नहीं छोड़ेगा तब तक वह प्रकृतिसखी का संगी बन गृहस्थ नहीं हो सकेगा। इस तरह सांख्यमतमें प्रकृतिका संयोग किसी भी तरह सिद्ध नहीं होता, जब संयोग ही नहीं तब प्रकृतिवियोगरूप मोक्षको बात ही दूर है, क्योंकि वियोग तो संयोगपूर्वक ही होता है। ६२५७. आपने जिस विवेकख्याति-भेदज्ञानकी चर्चा की थी वह भी एक तरहसे विना विचारे ही भली मालूम होनेवाली है। आप बताइए कि विवेकख्यातिका अर्थ क्या है ? अपनेअपने स्वरूपमें स्थित प्रकृति और पुरुषको भिन्न-भिन्न प्रतिभास होना ही यदि विवेकख्याति है, १. किं प्रकृति-म.२। २. प्रकृत्यात्मनः संयो-आ. क.। ३. तन्न सांख्यमते कथमपि प्र-म.२ । ४. संयोगविधिपूर्व-म..। ५. "तत्र केयं विवेकख्याति म प्रकृतिपुरुषयोः स्वेन स्वेन रूपेणावस्थितयोः भेदेन प्रतिभासनमिति चेत्, सा कस्य-प्रकृतेः, पुरुषस्य, तव्यतिरिक्तस्य वा कस्यचित् ।"-न्यायकुमु. पू. ८२। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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