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________________ -का० ५२.६२५५ ] जैनमतम् । २९१ सुखादिफलं किं नात्मस्थं मन्येत, ज्ञानस्य बुद्धिधर्मत्वाबुद्धेश्च प्रकृत्या सममुपरतत्वात्, मुक्तात्मनोऽपि ज्ञानाभावेनाज्ञानतमश्छन्नत्वाविशेषात् । द्वितीयपक्षे तु किमिदमज्ञानादन्यत्तमो नाम । रागादिकमिति चेत्, तन्न; तस्यात्मनोऽत्यन्तार्थान्तरभूतप्रकृतिधर्मतयात्माच्छादकत्वानुपपत्तेः । आच्छादकत्वे वा मुक्तात्मनोऽप्याच्छादनं स्यात्, अविशेषात् । २५४. किं च संसार्यात्मनोऽकर्तुरपि भोक्तृत्वेऽङ्गीक्रियमाणे कृतनाशाकृतागमादयो दोषाः प्रसज्यन्ते। $२५५. किं च, प्रकृतिपुरुषयोः संयोगः केन कृतः किं प्रकृत्योतात्मना वा । न तावत्प्रकृत्या, तस्याः सर्वगतत्वान्मुक्तात्मनोऽपि तत्संयोगप्रसङ्गः। अथात्मना, तहि स आत्मा शुद्धचैतन्यस्वरूपः सन् किमर्थ प्रकृतिमादत्ते । तत्र कोऽपि हेतुरस्ति न वेति वक्तव्यम् । अस्ति चेत्, तहि स हेतुः प्रकृतिवा स्यात् आत्मा वा। अन्यस्य कस्याप्यनभ्युपगमात् । आद्यपक्षे यथा सा प्रकृतिस्तस्यात्मनः प्रकृतिसंयोगे हेतुः स्यात्, तया मुक्तात्मनः किं न स्यात् । प्रकृतिसंयोगात्पूर्व शुद्धचैतन्यस्वरूपत्वेनोमुक्त पुरुष भी अज्ञानी ही हैं, क्योंकि ज्ञान तो बुद्धिका धर्म है और बुद्धि प्रकृतिके साथ ही साथ मुक्त पुरुषसे बिदा हो चुकी है । तात्पर्य यह कि मुक्त पुरुष भी बुद्धिके नष्ट हो जाने से अज्ञानी ही है, अतः अज्ञान अन्धकारसे व्याप्त होनेके कारण वे भी प्रकृतिके सुखको अपना सुख क्यों नहीं मानते और हमारी ही तरह संसारी क्यों नहीं हो जाते? क्योंकि यदि हममें अभीतक विवेकज्ञान उत्पन्न न होनेके कारण अज्ञान है तो मुक्त पुरुषों में विवेकज्ञान उत्पन्न होकर भी नष्ट हो जानेके कारण अज्ञान है। ज्ञानका उत्पन्न न होना और होकर नष्ट हो जाना करीब-करीब एक ही बात है। यदि अज्ञानसे अन्धकार भिन्न वस्तु है; तो बताइए वह कौन सा अज्ञान से भिन्न अन्धकार है जिससे आच्छादित होकर आत्मा अपने स्वरूपको भूल जाता है ? राग आदि तो अन्धकार होकर आत्माके आवरण नहीं हो सकते; क्योंकि ये भी आत्माके धर्म न होकर अत्यन्त भिन्न प्रकृतिके ही धर्म हैं, अतः वे आत्माके आच्छादक नहीं हो सकते। यदि अत्यन्त भिन्न प्रकृतिके धर्म होकर भी आत्माके आवारक हों तो मुक्तात्माओंके स्वरूपको भी ये ढंक देवें, जिस तरह प्रकृति हमारी आत्माओंसे भिन्न होकर भी उसके रागादि धर्म हमारी आत्मामें अपना प्रभाव जमा सकते हैं उसी तरह मुक्तात्माओंपर भी उन्हें अपना असर दिखाना ही चाहिए। २५४. संसारी आत्माको कर्ता नहीं मानकर भी भोक्ता मानने में कृतनाश और अकृतागम नामके बड़े भारी दोष होंगे। जिस बिचारी प्रकृतिने परिश्रम करके काम किया उसे तो उसका फल नहीं मिला और जिस निकम्मे पुरुषने कुछ भी किया-कराया तो है नहीं पर फल भोगनेको उसे ही बिठाया जाता है। यह तो 'करै कोई और भोगे कोई' वाली बात हुई। ' १२५५. आप यह बताइए कि-प्रकृति और पुरुषका संयोग किया किसने? क्या प्रकृति अपने आप पुरुषपर रोझ गयो या पुरुष हो प्रकृतिपर मोहित हुआ है ? यदि प्रकृतिने स्वयं संयोग किया होता; तो प्रकृति तो सर्वव्यापी है अतः मुक्तपुरुषोंसे भी उसे संयोग करना चाहिए। यदि आत्माने ही प्रकृतिपर मोहित होकर इससे सम्बन्ध किया है; तो यह शुद्ध चैतन्य स्वरूप आत्मा क्यों इस प्रकृतिपर मोहित हुआ और किस प्रयोजनसे उसने इसके साथ अपना सम्बन्ध किया ? आत्माके इस प्रकृति संयोगका कोई कारण है या नहीं? यदि कोई कारण है, तो वह कारण या तो प्रकृति ही हो सकती है या आत्मा? इन दोसे भिन्न तीसरी वस्तु तो है ही नहीं जो इनके संयोगमें कारण हो सके । यदि प्रकृति ही कारण है, तो जिस तरह प्रकृति संसारी आत्माका १. -ज्ञानं नाम म. २ । २. अपि च भ. १, २, प. १, २। ३. -गः अथा-म. २ । ४. तथात्मनः भ. २। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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