________________
२९० षड्दर्शनसमुच्चये
[ का० ५२ ६ २५२६२५२. अत्र सांख्या ब्रुवते । इह शुद्धचैतन्यस्वरूपोऽयं पुरुषः, तृणस्य कुब्जीकरणेऽप्यशक्तत्वादकर्ता, साक्षादभोक्ता, जडां प्रकृति सक्रियामाश्रितः। अज्ञानतमश्छन्नतया प्रकृतिस्थमपि सुखादिफलमात्मनि प्रतिबिम्बितं चेतयमानो मोदते मोदमानश्च प्रकृति सुखस्वभावां मोहान्मन्यमानः संसारमधिवसति । यदा तु 'ज्ञानमस्याविर्भवति 'दुःखहेतुरियं न ममानया सह संसर्गो युक्तः' इति, तवा विवेकख्यातेन तत्संपादितं कर्मफलं भुङ्क्ते। सापि च "विज्ञातविरूपाहं न मदीयं कर्मफलमनेन भोक्तव्यम्' इति मत्वा कुष्ठिनोस्त्रीवदूराववसर्पति । तत उपरतायां प्रकृतौ पुरुषस्य स्वरूपेणावस्थानं मोक्षः। स्वरूपं च 'चेतनाशक्तिरपरिणामिन्यप्रतिसंक्रमा प्रतिशितविषयानन्ता च अतस्तयुक्त एव मुक्तात्मा न पुनरानन्दादिस्वभावः, तस्य प्रकृतिकार्यत्वात्, तस्याश्च जीवनाशं नष्टत्वात्।
६२५३. अत्र वयं ब्रूमः। यत्तावदुक्तम्-'संसार्यात्मा अज्ञानतमश्छन्नतया' इत्यादि, तद. सुन्दरम्; यतः किमज्ञानमेव तमः, उताज्ञानं च तमश्चेति । प्रथमपक्षे मुक्तात्मापि प्रकृतिस्थमपि ___६२५२. सांख्य (पूर्वपक्ष)-पुरुष तो शुद्ध चैतन्यस्वरूपी है, वह तिनकेको टेढ़ा करनेकी भी शक्ति न रखनेके कारण अकर्ता है। वह भोक्ता भी साक्षात् नहीं है किन्तु करने-धरने वाली जड़ प्रकृतिके द्वारा ही भोगता है। वह अज्ञानरूपी अन्धकारसे व्याप्त होनेसे प्रकृतिमें होनेवाले सुखादिफलोंको अपने स्वरूपमें प्रतिबिम्बित होनेके कारण अपना ही मानता हुआ सुखी होता है। और अपनी इस खुशीमें मोहसे प्रकृतिको सुखरूप मानकर संसार चक्रमें पड़ा हुआ है। जब इसे यह तत्त्वज्ञान उत्पन्न होता है कि-'अरे, यह प्रकृति ही समस्त दुःखोंकी जड़ है, मेरा इससे संसर्ग होना उचित नहीं है' तब इस भेदविज्ञानसे यह आत्मा उस प्रकृतिके द्वारा लाये गये कर्मफलोंको नहीं भोगता, उनकी तरफ देखता भी नहीं है। प्रकृति भी बड़ी शरमदार है। उसने जब एक बार ही यह जान लिया कि-'यह पुरुष मुझसे विरक्त हो गया है, इसने मुझे कुरूपा समझ लिया है और अब यह मेरे द्वारा लाये गये कर्मफलोंको नहीं भोगेगा' तब वह कोढ़वाली स्त्रीकी तरह स्वयं ही पुरुषके पास नहीं जायेगी, उससे खुद दूर रहेगी। इस तरह प्रकृतिका संसर्ग हट जानेपर पुरुष अपने निजी शुद्ध चैतन्य मात्रमें स्थित हो जाता है, यही स्वरूपावस्थिति मोक्ष है। पुरुषका स्वरूप चैतन्यमय है। यह चेतनाशक्ति, अपरिवर्तनशोक नित्य है, अप्रतिसंक्रमादर्पणकी तरह स्वयं विषयोंके आकार तो नहीं होती, परन्तु प्रदर्शितविषया बुद्धिके द्वारा विषयोंका प्रदर्शन करती है और अनन्त है। मुक्तात्मा इसी शुद्ध चैतन्य स्वरूपमें अवस्थित होता है सुख आदि स्वरूप नहीं; क्योंकि सुख पुरुषका स्वभाव नहीं है यह तो प्रकृतिका कार्य है। प्रकृति तो संसारका नाश होनेसे मुक्त जीवके प्रति नष्ट हो चुकी है उसका अधिकार अब मुक्त पुरुषपर नहीं रहा वह मुक्त पुरुषके प्रति चरितार्थ हो चुको है। ६२५३. जैन ( उत्तरपक्ष )-आपने संसारी आत्माको अज्ञानान्धकारसे आच्छादित
अन्धकार है या अज्ञान और अन्धकार दो वस्तुएँ है ? यदि अज्ञान का नाम ही अन्धकार है और अज्ञानी पुरुष प्रकृतिके सुखको अपना सुख मानता है; तो
१. “तत्प्रधानावगमं प्रति यदा पुरुषस्य सम्यग् ज्ञानमुत्पद्यते तदा तेन ज्ञानेन दृष्टा प्रकृतिः पुरुषसङ्गानिवर्तते । स्वैरिणीव पुरुषेणोपलक्षिता । अये इयमसाध्वी मां मोहयति तस्मान्न ममानया कार्यमितिवत् । तस्यां च निवृत्तायां मोक्षं गच्छति ।"-सांरुप, माठरवृ. इको. ६१ । २. "चितिशक्तिरपरिणामिन्यप्रतिसङ्क्रमा दर्शितविषया शुद्धा चानन्ता च ।" -योगमा. १।२। ३. -माऽप्र-म. । ४. -या अत-म.२।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org