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- का० ५२६२५१]
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प्रिय बुद्धिविषयत्वात् अनन्यपरतयोपादीयमानत्वाच्च, वैषयिकसुखवत् । यथा सुखार्थो मुमुक्षुप्रयत्नः, प्रेक्षापूर्व कारिप्रयत्नत्वात्, कृषीबल प्रयत्नवदिति । तच्च सुखं मुक्तौ परमातिशयप्राप्तं, सा चास्यानुमानात्प्रसिद्धा यथा, सुखतारतम्यं क्वचिद्विश्रान्तं, तरतमशब्दवाच्यत्वात्, परिमाणतारतम्यवत् । तथा
जैनमतम् ।
"आनन्दं ब्रह्मणो रूपं तच्च "मोक्षेऽभिव्यज्यते । यदा दृष्ट्वा परं ब्रह्म सर्वं त्यजति बन्धनम् ॥ १॥ तदा तन्नित्यमानन्दं मुक्तः स्वात्मनि विन्दति । " इति श्रुतिसद्भावात् । तथा
"सुखमात्यन्तिकं यत्र बुद्धिग्राह्यमतीन्द्रियम् ।
तं वै मोक्षं विजानीयादुःप्रापमकृतात्मभिः || १ || ”
इति स्मृतिवचनाच्च मोक्षस्य सुखमयत्वं प्रतिपत्तव्यमिति स्थितम् ।।
है परन्तु आत्माका ग्रहण किसी दूसरेके लिए नहीं स्वयं उसीके सुखके लिए ही किया जाता है । अपना विषय सुख अत्यन्त प्यारा है तथा स्वयं अपने ही लिए है अतः वह सुखरूप है इसी तरह आत्मा भी सुखरूप है । मुमुक्षुओंका तपश्चरण योगसाधन आदि प्रयत्न सुखके लिए हैं, क्योंकि वह समझदार व्यक्तिका बुद्धिपूर्वक किया गया प्रयत्न है जैसे कि किसानका धान्यकी प्राप्तिके लिए किया गया खेतीका प्रयत्न । मोक्षमें सुख अपने पूरे विकासको पा लेता है वहाँ परम अतीन्द्रिय अनन्त सुख होता है । मोक्षकी परमानन्दरूपता इस अनुमानसे सिद्ध होती है-सुखकी तरतमताक्रमिक विकास कहीं पर अपनी पूर्णताको प्राप्त होती है क्योंकि वह तरतमता है - क्रमिक विकास है जैसे कि मापका क्रमिक विकास आकाश में पूर्णता प्राप्त करता है । अथवा सुखको न्यूनाधिकता कहीं समाप्त हो जाती है अर्थात् वहाँ सुख आखिरी मर्यादा को पहुँच जाता है कमोवेश नहीं रहता, क्योंकि वह न्यूनाधिकता है जैसे कि नापकी न्यूनाधिकता । " आनन्द ही ब्रह्मका शुद्ध स्वरूप है, वह मोक्षमें प्रकट होता है। जिस समय परब्रह्मका साक्षात्कार करके समस्त अविद्याबन्धनोंको काट दिया जाता है उस समय बन्धनोंसे मुक्त आत्मा अपने स्वरूपमें उस परमानन्दका अनुभव करता है ।" ये श्रुतियां भी मोक्षमें आनन्दरूपताका स्पष्ट प्रतिपादन कर रही हैं। स्मृतिमें भी कहा है कि - "जहाँ इन्द्रियोंके द्वारा ग्रहण करनेके अयोग्य अतीन्द्रिय अनन्त सुख होता है वही मोक्ष है । यह अतीन्द्रियसुख केवल बुद्धिके द्वारा ही गृहीत होता है । यह मोक्ष आत्मज्ञानसे रहित मूढ़ संसारियोंको कठिनतासे ही प्राप्त होता है ।" इत्यादि श्रुतिस्मृति के प्रमाणोंसे भी मोक्षकी आनन्दरूपता प्रसिद्ध होती है ।
१. वित्तस्त्रीपुत्रादयो हि आत्मार्थमुपादीयन्ते परं चात्मन उपादानं तु नान्यार्थम्, स्वयमात्मा आत्मार्थमेवोपादीयते इत्यर्थः । " प्रवृत्तिश्च निवृत्तिश्च यच्च यावच्च चेष्टितम् । आत्मार्थमेव नान्यार्थं नातः प्रियतमं परः ।”—सर्ववेदान्तसि. इको. ६३० । २. “ इष्टार्थो मुमुक्षुप्रयत्नः, प्रेक्षापूर्वकारिप्रयत्नत्वात्, कृष्यादिप्रयत्नवत् इति । " - न्याय कुमु. पृ. ८३१ । ३. परमाणुतार - म. २ । ४. तथाहि आ. भ. २ । ५. 'मोक्षेऽभिपद्यते ' - प्रश व्यो. पृ. २० ख । " आनन्दं ब्रह्मणो रूपं तच्च मोक्षे प्रतिष्ठितम् ।"वेदान्तसि. पू. १५१ । तुलना - " नित्यं सुखमात्मनो महत्त्ववन्मोक्षेऽभिव्यज्यते । -न्यायमा १११।२२ न्याय मं. पृ. ५०९ । प्रकृतपाठः सम्मति टी. पृ. १५१ । न्यायकुमु. पृ. ८३१ । ६. उद्धृतोऽयम् - न्यायकुभु, पृ. ८३१ । ७. “सुखमात्यन्तिकं यत्तद्बुद्धिग्राह्यमतीन्द्रियम् ।" - भगवद्गी ६।२१| यो. सि. ३।५५ ।
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