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________________ २८८ षड्दर्शनसमुच्चये [का० ५२.६२५१ऊमिषट्कातिगं रूपं तदस्याहुर्मनीषिणः । संसारबन्धनाधीनदुःखक्लेशाद्यदूषितम् ॥५॥" [ न्यायम. प्रमे. पृ.७] ऊर्मयः कामक्रोधमदगर्वलोभवम्भाः। ६२५१. "नहि वै सशरीरस्य प्रियाप्रिययोरपहतिरस्ति, अशरीरं वा वसन्तं प्रियाप्रिये न स्पृशतः" [ छान्दो. ८।१२।१] इत्यादि, तदप्यपास्तं द्रष्टव्यम् । यतः किं शुभकर्मपरिपाकप्रभवाणि भवसंभवानि सुखानि मुक्तौ निषिध्यमानानि सन्त्यूत सर्वथा तदभावः। आधे सिद्धसाधनम । 'द्वितीयोऽसिद्धः आत्मनः सुखस्वरूपत्वात् । न च पदार्थानां स्वरूपमत्यन्तमुच्छिद्यते, अतिप्रसङ्गात् । न च सुखस्वभावत्वमेवासिद्धं,तत्सद्भावे प्रमाणसद्भावात् । तथाहि-आत्मा सुखस्वभावः, अत्यन्तप्रतिष्ठित-लीन हो जाता है । वह मोक्ष छह प्रकारकी ऊर्मियों-लहरोंसे रहित निस्तरंग समुद्रकी तरह शान्त है। उसमें संसारके बन्धनोंसे होनेवाले दुःख क्लेश आदिकी गन्ध भी नहीं रहती। तात्पर्य यह कि वह केवल दुःखनिवृत्ति रूप ही है। काम, क्रोध, मद, गर्व, लोभ और दम्भ ये छह लहरें हैं जो चित्तको सदा विकारी तथा चंचल बनाये रखती हैं। २५१. "शरीरधारी आत्माके सुख और दुःखका अभाव नहीं होता वह सुखी या दुखी बना ही रहता है, परन्तु अशरीरी आत्माको सुख और दुःख प्रिय और अप्रिय छू भी नहीं सकते, वह इनसे परे हो जाता है।" हम इन नैयायिकोंसे पूछते हैं कि आप लोग मुक्तिमें शुभकर्मके फलस्वरूप सांसारिक सुखोंका निषेध करते हो या सभी प्रकारके सुखोंका ? यदि कर्मजन्य सांसारिक सुखोंका मोक्षमें निषेध करना ही आपको इष्ट है; तो इतना तो हम पहलेसे ही मानते हैं, हम मोक्षमें इन्द्रिय जन्य कर्मसे होनेवाला सुख मानते ही नहीं हैं हम तो मोक्षमें परम अतीन्द्रिय स्वाभाविक सुख मानते हैं अतः आपका हेतु सिद्धसाधन होनेसे अकिंचित्कर हो जायेगा। मोक्षमें सभी प्रकारके सुखोंका उच्छेद मानना तो प्रमाणविरुद्ध है; क्योंकि आत्मा स्वयं सुख रूप है, सुख तो उसका निजी स्वभाव है। पदार्थों के निजी स्वभावका उच्छेद करनेसे तो पदार्थोंका ही अभाव हो जायेगा और यह जगत् शून्य हो जायेगा। उस समय जब सुख रूप आत्मा ही न रहेगी तब मोक्ष होगा किसे ? आत्माकी सुखस्वभावता निम्नलिखित अनेक प्रमाणोंसे प्रसिद्ध है अतः उसे असिद्ध नहीं कह सकते। आत्मा सखस्वभाववाला है क्योंकि वह अत्यन्त प्रियबटिका विषय है. वह सबसे अधिक प्यारा है. दूसरेके लिए नहीं किन्तु स्वयं अपनी शान्तिके लिए ग्रहण किया जाता है जैसे कि विषयजन्य सुख । धन आदिका संग्रह स्त्रीके निमित्त तथा स्त्री आदिका परिग्रह आत्माके लिए किया जाता १. "प्राणस्य क्षुत्पिपासे द्वे लोभमोही च चेतसः । शीतातपो शरीरस्य षडूमिरहितः शिवः । ॥"न्यायम. प्रमे, पृ. ७७। २. "तस्य च न ह वै सशरीरस्य सतः प्रियाप्रिययोः बाह्यविषयसंयोगवियोगनिमित्तयोः बाह्यविषयसंयोगवियोगो ममेति मन्यमानस्य अपहतिविनाश उच्छेदः संततिरूपयोनास्तीति । तं पुनर्देहाभिमानादशरीरस्वरूपविज्ञानेन निवतिताविवेकज्ञानशरीरं सन्तं प्रियाप्रियेन स्पशतः । स्पशिः प्रत्येक सम्बध्यत इति प्रियं न स्पृशति अप्रियं न स्पृशतीति वाक्यद्वयं भवति ..धर्माधर्मकार्ये हि ते, अशरीरता तु स्वरूपमिति तत्र धर्माधर्मयोरसम्भवात्तत्कार्यभावी दूरत एवेत्यतो न प्रियाप्रिये स्पृशतः। -छान्दो. शा. भ.। ३. -वानि भ. १, २, प.१,२। ४. द्वितीयेऽपि-आ., क.। ५. “तदेतत्प्रेयः पुत्रात्प्रेयः अन्यस्मात्सर्वस्मादन्तरतरं यदयमात्मा आत्मानमेव प्रियमुपासीत।"-बृहदा. १४८। “एष एव प्रियतमः पुत्रादपि धनादपि । अन्यस्मादपि सर्वस्मादात्मायं परमान्तरः ॥"-सर्ववेदान्तसि. श्लो. ६२७ । "आत्मा सुखाभिन्नः सुखलक्षणवत्त्वाद् वैषयिकसुखवत् आत्मा सुखम् अनोपाधिकप्रेमगोचरत्वात् ।"संक्षेपशा. टी. पृ. ३०-३१ । “परमप्रेमास्पदत्वानुपपत्तिरप्यात्मनः सुखरूपत्वे प्रमाणम् ।"-चि.सु. पृ. ३५८ । सिद्धान्त वि. पृ. ४४५ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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