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- का० ५२. ६ २५०]
जैनमतम् । प्रवर्तते, न पुनः शिलाशकलकल्पमपगतसकलसुखसंवेदनमात्मानमुपपादयितुं यतते, यदि' मोक्षावस्थायामपि पाषाणकल्पोऽपगतसुखसंवेदनलेशः पुरुषः संपद्यते, तदा कृतं मोक्षण, संसार एव वरीयान् । यत्र सान्तरापि सुखलेशप्रतिपत्तिरप्यस्ति । अतो न वैशेषिकोपकल्पिते मोक्षे कस्यचिद्गन्तुमिच्छा । उक्तं च
वरं वृन्दावने वासः, शृगालैश्च सहोषितम् ।
न तु वैशेषिकी मुक्ति, गौतमो गन्तुमिच्छति ॥१॥" $२५०. एतेन यदूचुर्मीमांसका [ चुर्नैयायिका ] अपि
"यावदात्मगुणाः सर्वे नोच्छिन्ना वासनादयः । तावदात्यन्तिकी दुःखव्यावृत्तिविकल्प्यते ॥१। धर्माधर्मनिमित्तो हि संभवः सुखदुःखयोः । मलभतौ च तावेव स्तम्भौ संसारसद्मनः ॥२॥ तदुच्छेदे च तत्कार्यशरीराद्यनुपप्लवात् । नात्मनः सुखदुःखे स्त इत्यसो मुक्त उच्यते ॥३॥ ननु तस्यामवस्थायां कीदृगात्मावशिष्यते ।
स्वरूपैकप्रतिष्ठानः परित्यक्तोऽखिलैर्गुणैः ।।४॥ हो जाय; तो इस सर्वविनाशी मोक्षके लिए कौन प्रवृत्ति करेगा? सभी मुमुक्षु मोक्षमें निरतिशय अनन्तसुख तथा अनन्तज्ञान आदिके प्राप्त होनेकी अभिलाषासे ही तपश्चरण योगसाधन आदि दुष्कर प्रयत्न करते हैं, न कि अपनी आत्माके रहे सहे सुख ज्ञान आदिका भो समूल नाश करके उसे पत्थर जैसा जड़ बनानेके लिए। यदि मोक्षमें तमाम ज्ञान सुख आदि गुणोंका उच्छेद होकर आत्मा पत्थरकी तरह जड़ बन जाता है, तो ऐसे मोक्षको दूरसे हो नमस्कार, वह आपके लिए ही मुबारिक हो, हमें तो यह संसार ही कहीं अच्छा है जिसमें बीच-बीच में कभी-कभी भूले-भटके ही सही थोड़े बहुत सुखका अनुभव तो हो जाता है। अत: वैशेषिकके द्वारा माने गये इस सर्वविनाशी जड़ मोक्षमें जानेको किसीकी इच्छा तक नहीं हो सकती। कहा भी है-"गौतम ऋषि वृन्दावनके जंगलोंमें सियारोंके साथ बसना अच्छा समझते हैं पर वे वैशेषिकोंकी जड़ मुक्तिमें किसी भी तरह नहीं जाना चाहते।
६२५०. इस विवेचनसे मीमांसकों ( ? ) ( नैयायिकों) का यह कथन भी खण्डित हो जाता है कि-"जब तक आत्माके पुण्य-पाप संस्कार आदि सभी विशेष गुणोंका उच्छेद नहीं होता तब तक आत्यन्तिक दुःखनिवृत्तिका होना सम्भव ही नहीं है। प्राणियोंको सुख-दुःख आदिकी उत्पत्ति पुण्य और पापसे ही होती है, ये पुण्य और पाप ही इस संसाररूपी महलके आधारभूत मूलस्तम्भ हैं । जब इन पुण्यपापरूप मूल खम्भोंको ही गिरा दिया जायेगा तब इनके कार्यभूत शरीर आदिको स्वस्थतासे होनेवाले सुख और दुःख तो अपने हो आप समाप्त हो जायेंगे, न तो
उत्पन्न ही होंगे और न मौजद ही रहेंगे। इस तरह सख-दुःख आदिके नाश होने पर यह जीव मुक्त हो जाता है । उस समय आत्माको क्या दशा होतो है ?' इस प्रश्नका तो सीधासा उत्तर है कि-यह जीव मोक्षमें तमाम बुद्धि आदि गुणोंसे रहित होकर शुद्ध स्वरूपमात्रमें
१. "यदि हि मोक्षावस्थायां शिलाशकलकल्पः अपगतसुखसंवेदनलेशः पुरुषः संपद्यते तदा कृतं मोक्षेण ।" -न्यायकमु. पू. ८२८ । २. "अपि वृन्दावने शून्ये शृगालत्वं स इच्छति । न तु निविषयं मोक्षं कदाचिदपि गौतमः।" -सम्बन्धवा. श्लो. ४२३ । विवरणप्र. पू. १३. । “वरं वृन्दावने रम्ये शृगालत्वं प्रपद्यते ।" -न्यायकुमु. पृ. ८२८ । “वरं वृन्दावने रम्ये क्रोष्टत्वमभिवाञ्छितम् ।"-स्या. मं. पृ. ८६ । ३. न हि वैशे-म.२। ४. कल्पते भ. १, २, ५:१,२, क. । ५. मोक्ष भ.२ ।
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