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२८६ षड्दर्शनसमुच्चये
[ ५२. $ २४९ - वा। आद्यपक्षे आश्रयासिद्धो हेतु; संतानिभ्योऽत्यन्तं भिन्नस्य संतानस्यासत्कल्पत्वात् । द्वितीयपक्षे तु सर्वथाभिन्नानां तेषामुच्छेदसाधने संतानवत् संतानिनोऽप्युच्छेदप्रसङ्गः। ततश्च कस्यासौ मोक्षः । भिन्नाभिन्नपक्षाभ्युपगमे चापसिद्धान्तः। किच, विरुद्धश्चार्य हेतुः, कार्यकारणभूतक्षणप्रवाहलक्षणसंतानत्वस्य नित्यानित्यैकान्तयोरसंभवात् । अर्थक्रियाकारित्वस्यानेकान्त एव.प्रतिपादिष्यमाणत्वात् । साध्यविकलश्च दृष्टान्तः, प्रदीपादेरत्यन्तोच्छेदासंभवात, तेजसपरमाणनां भास्वररूपपरित्यागेनान्धकाररूपतयावस्थानाप्रयोगाश्चात्र-पूर्वापरस्वभावपरिहाराङ्गीकारस्थितिलक्षणा - परिणामवान् प्रदीपः, सत्वात, घटादिवदिति । अत्र बहु वक्तव्यम्, तत्त्वभिधास्यते विस्तरेणानेकान्तप्रघट्टके।
$२४९. किंच इन्द्रियजानां बुद्धयादिगुणानामुच्छेदः साध्यमानोऽस्ति भवता, उतातीन्द्रिययाणाम् । तत्राद्यपक्षे सिद्धसाधनम् अस्माभिरपि तत्र तदुच्छेदाभ्युपगमात् । द्वितीयविकल्पे मुक्तौ कस्यचिदपि प्रवृत्त्यनुपपत्तिः । मोक्षार्थो हि सर्वोऽपि निरतिशयसुखज्ञानादिप्राप्त्यभिलाषेणैव
होती असत् है । आत्मासे भिन्न सत्ता रखनेवाले बुद्धि आदि गुण रूप आश्रय ही सिद्ध नहीं है जिसमें आपका हेतु रहेगा, अतः आश्रयासिद्ध होनेसे साध्यको सिद्धि नहीं कर सकता। यदि बुद्ध्यादिगुण आत्मासे अभिन्न हैं; तो बुद्ध्यादि गुणोंका उच्छेद होनेसे तदभिन्न आत्माका भी उच्छेद हो ही जायेगा तब मोक्ष किसे होगा? कौन बुद्ध्यादिगुण शून्य स्वरूपमें स्थिर होगा ? यदि बुद्ध्यादिगुण आत्मासे कथंचिद् भिन्नाभिन्न हैं; तो जैनमतको सिद्धि होने से आपके सर्वथा भेदवादका विरोध हो जायेगा। सन्तानका अर्थ है-कार्य-कारणभूत क्षणोंका प्रवाह। यह कार्यकारणभाव न तो सर्वथा नित्यवादमें ही बनता है और न सर्वथा अनित्यवादमें हो। अर्थक्रिया करनेकी शक्ति तथा अर्थक्रियामूलक कार्यकारणभाव तो अनेकान्त सिद्धान्तमें ही घटित होता है। इसका विशेष समर्थन आगे करेंगे। अतः सन्तानत्व हेतु द्वारा आपके सर्वथा नित्यसे विपरीत कथंचिन्नित्यानित्य पदार्थको ही सिद्धि होगी और इस लिए सन्तानत्व हेतु विरुद्ध भी है। दृष्टान्तरूप प्रदोपका अत्यन्तोच्छेद नहीं होता अतः आपका दृष्टान्त साध्यविकल होनेसे दृष्टान्ताभास है । जब दीपक बुझता है तब दीपकके वे चमकते हुए भासुर रूपवाले तैजसपरमाणु अपने भासुररूपको छोड़कर अन्धकाररूपमें परिणत हो जाते हैं, उनका केवल रूप परिवर्तन होता है अत्यन्त उच्छेद नहीं । प्रयोग-दीपकका पूर्वस्वभावका त्याग उत्तरस्वभावका उत्पाद तथा पुद्गलरूपसे स्थिति रखनेवाला ही परिणमन होता है अत्यन्त उच्छेद नहीं, क्योंकि वह सत् है जैसे कि घड़ा। इस विषयको बहुत कुछ विस्तारसे कहना है, पर उसे यहाँ न कहकर आगे 'अनेकान्त' के प्रकरणमें कहेंगे।
६२४९. यह बताइए कि-आप मोक्षमें इन्द्रियोंसे उत्पन्न होनेवाले बुद्धि आदि गुणोंका अत्यन्त उच्छेद सिद्ध करना चाहते हैं या इन्द्रियोंको सहायताके बिना ही मात्र आत्मासे ही उत्पन्न होनेवाले अतीन्द्रिय बुद्धि आदिका ? मोक्षमें इन्द्रियजन्य बुद्धि सुख आदि गुणोंका अत्यन्त उच्छेद तो हम लोग भी मानते हो हैं अतः सिद्ध साधन होनेसे आपका अनुमान हो व्यर्थ है। यदि इन्द्रियोंकी सहायताके बिना ही उत्पन्न होनेवाले अतीन्द्रियज्ञान सुख आदिका भी मोक्षमें उच्छेद
१. चापसिद्धः किंच म. । २. "विरुद्धश्चायं हेतुः, शब्दबुद्धि प्रदोपादिषु अत्यन्तानुच्छेदवत्स्वेव संतानत्वस्य भावात् ।"-सन्मति. टी. पृ. १५७ । न्यायकुमु. पृ. ८२७ । प्रमेयक. पृ. ३१८ । रत्नाकराव. ७५७ । ३. "किंच, अतोऽनुमानात् इन्द्रियजानां बुद्धयादिविशेषगुणानामत्यन्तोच्छेदः साध्येत, अतीन्द्रियाणां वा।"-न्यायकुमु. पृ. ८२७ ।
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