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-का० ५२. ६२४८] जैनमतम् ।
२८५ संतानत्वात्, प्रदीपादिसंतानवत् । न चायमसिद्धो हेतुः, पक्षे वर्तमानत्वात् । नापि विरुद्धः, सपक्षे प्रदीपादौ सत्त्वात् । नाप्यनैकान्तिकः, केवलपरमाण्वादावप्रवृत्तः। नापि कालात्ययापदिष्टः, विपरोतार्थोपस्थापकयोः प्रत्यक्षानुमानयोरत्रासंभवात् । ननु संतानोच्छेदे हेतुर्वक्तव्य इति चेत् । उच्यते', निरन्तरशास्त्राभ्यासात् कस्यचित्पुंसस्तत्त्वज्ञानं जायते, तेन च मिथ्याज्ञाननिवृत्तिविधीयते, तस्य निवृत्तौ तत्कार्यभूता रागादयो निवर्तन्ते, तदभावे तत्कार्या मनोवाक्कायप्रवृत्तिावर्तते, तद्वयावृत्तौ च धर्माधर्मयोरनुत्पत्तिः । आरब्धशरीरेन्द्रियकार्ययोस्तु सुखादिफलोपभोगा. प्रक्षयः । अनारब्धशरीरादिकार्ययोरप्यवस्थितयोस्तत्फलोपभोगादेव प्रक्षयः। ततश्च सर्वसंतानोच्छेदान्मोक्ष इति स्थितम ।
६२४८. अत्र प्रतिविधीयते। यत्तावदुक्तं 'संतानत्वात्' इत्यादि; तदसमीचीनम; यत आत्मनः सर्वथा भिन्नानां बुद्धयादिगुणानां संतानस्योच्छेदः साध्यते अभिन्नानां वा, कथंचिद्भिन्नानां ज्ञान परिपूर्ण रूप में विकसित हो जाता है तब उस तत्त्वज्ञानसे आत्माके बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, धर्म, अधर्म, और संस्कार इन नौ विशेष गुणोंका अत्यन्त उच्छेद करके आत्माका अपने शुद्ध रूपमें लीन हो जाना ही मोक्ष है। बुद्धि आदि गुणोंका उच्छेद सिद्ध करनेवाला प्रमाण यह है-आत्माके नौ विशेष गुणोंकी सन्तान-परम्परा कभी अत्यन्त नष्ट हो जाती है क्योंकि वह सन्तान-परम्परा है जैसे कि दोपक आदिकी परम्परा। सन्तानत्व हेतु आत्माके विशेष गुण रूप पक्षमें रहता है अतः असिद्ध नहीं है। सपक्षभूत दोपक आदिमें पाया जाता है अतः विरुद्ध नहीं है। परमाणु आदि विपक्षमें नहीं पाया जाता अतः व्यभिचारी नहीं है। साध्यसे विपरीत अर्थको साधनेवाले प्रत्यक्ष और अनुमान नहीं हैं अतः यह हेतु कालात्ययापदिष्ट-बाधित भी नहीं है। बुद्धयादि गुणोंको सन्तानका उच्छेद तत्त्वज्ञानसे इस क्रमसे होता है-सतत शास्त्रोंका अभ्यास एवं सत्संग आदिसे किसी बिरले भाग्यवान्को जब तत्त्वज्ञान उत्पन्न होता है तब उससे उसका मिथ्याज्ञान नष्ट हो जाता है। मिथ्याज्ञानके नष्ट होते ही मिथ्याज्ञानसे होनेवाले राग आदि दोष नष्ट हो जाते हैं। रागादि दोषोंका नाश होने पर दोषोंसे होनेवाली मन वचन कायके व्यापार रूप प्रवृत्ति बन्द हो जायेगी। प्रवृत्तिके न होनेसे प्रवृत्तिसे उत्पन्न होनेवाले पुण्य और पापको आगे उत्पत्ति नहीं होगी। जो पुण्य और पाप पहलेसे संचित हैं, उनमें से जिन्होंने शरीर इन्द्रिय आदिको उत्पन्न करके फल देना प्रारम्भ कर दिया है उनका तो फल भोगकर विनाश किया जायेगा, तथा जिसने अभी तक फल देना प्रारम्भ नहीं किया सत्ता रूपसे विद्यमान हैं उनका भी एक साथ अनेक शरीर आदि उत्पन्न कर फलोपभोगके द्वारा ही क्षय होगा। इस प्रकार पुण्य पाप आदि की परम्पराका सर्वथा उच्छेद होने पर सर्व सन्तानोच्छेद रूप मोक्ष हो जाता है।
१२४८. जैन-( उत्तरपक्ष)-आपका सन्तानत्व हेतु प्रमाण बाधित होनेसे साध्यको सिद्धि नहीं कर सकता। आप जिन बुद्ध्यादि गुणोंकी सन्तानका अत्यन्त उच्छेद सिद्ध करना चाहते हैं वे गुण आत्मासे सर्वथा भिन्न हैं, या सर्वथा अभिन्न, अथवा कथंचिद्भिन्न ? यदि भिन्न हैं; तो हेतु आश्रयासिद्ध हो जायेगा, क्योंकि सन्तानीसे अत्यन्त भिन्न सन्तान उपलब्ध ही नहीं
१. “यदा तु तत्त्वज्ञानात मिथ्याज्ञानमपति तथा मिथ्याज्ञानापाये दोषा अपयान्ति दोषापाये प्रवत्तिरपति, प्रवृत्त्यपाये जन्मापति, जन्मापाये दुःखमपैति, दुःखापाये चात्यन्तिकोऽवर्गो निश्रेयसमिति ।' -न्यायभा. १।१२। "निवृत्ते च मिथ्याज्ञाने तन्मूलत्वाद्रागादयो नश्यन्ति कारणाभावे कार्यस्यानुत्पादादिति । रागाद्यभावे च तत्कार्याप्रवृत्तिावर्तते, तदभावे च धर्माधर्मयोरनुत्पत्तिः । आरब्धकार्ययोश्चोपभोगात् प्रक्षयः।"-प्रश. व्यो. पृ. २० क.। २. यदुक्तं म.३। ३. “यस्मादात्मनः सर्वथा भिन्नानां बुद्धयादिविशेषगुणानां संतानस्य उच्छेदः प्रसाध्यते, अथ अभिन्नानाम्, कथंचिद्भिन्नानां वा?" -न्यायकुमु. पृ. ८२५ । प्रमेयक. पृ. ३१०।.
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