SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 310
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २८४ षड्दर्शनसमुच्चये [का० ५२. ६२४६ - तथा योगशास्त्रेऽप्युक्तम् "सुरासुरनरेन्द्राणां यत्सुखं भुवनत्रये । तत्स्यादनन्तभागेऽपि न मोक्षसुखसंपदः ॥१॥ स्वस्वभावजमत्यक्षं यस्मिन्वै शाश्वतं सुखम् । चतुर्वर्गाग्रणीत्वेन तेन मोक्षः प्रकीर्तितः ॥२॥" १२४६. अत्र सिद्धानां सुखमयत्वे त्रयो विप्रतिपद्यन्ते । तथाहि-आत्मनो मुक्तौ बुद्धयाद्यशेषगुणोच्छेदात्कथं सुखमयत्वमिति वैशेषिकाः । अत्यन्तचित्तसंतानोच्छेदत आत्मन एवासंभवादिति सौगताः। अभोक्तृत्वात्कथमात्मनो मुक्तौ सुखमयत्वमिति सांख्याः। २४७. अत्रादौ वैशेषिकाः स्वशेमुषों विशेषयन्ति ननु मोक्षे विशुद्धज्ञानादिस्वभावता आत्मनोऽनुपपन्ना, बुद्धथादिविशेषगुणोच्छेदरूपत्वान्मोक्षस्य । तथाहि-प्रत्यक्षादिप्रमाणप्रतिपन्ने जोवस्वरूपे परिपाकं प्राप्ते तत्त्वज्ञाने नवानां जीवविशेषगुणानामत्यन्तोच्छेदे स्वरूपेणात्मनोऽवस्थानं मोक्षः। तदुच्छेदे च प्रमाणमिदम् । यथा, नानामात्मविशेषगुणानां संतानोऽत्यन्तमुच्छिद्यते, सिद्ध जीवोंका सुख तो समस्त संसारी जीवोंके ऐन्द्रियक सुखसे विलक्षण है वह तो परमानन्द रूप है । कहा भी है-"जो निर्बाध सुख सिद्धोंको होता है वह न तो किसी मनुष्यको नसीब होता है और न किसी देवकी तकदोरमें ही लिखा है। समस्त देवताओंके त्रिकालवर्ती सुखको इकट्ठा करके उसे अनन्तसे गुणा भी कर दीजिए पर वह सिद्धोंके सुखके अनन्तवें भाग बराबर भी नहीं हो सकता। यदि सिद्धोंके समस्त सुखोंको इकट्ठा करके उसके अनन्तवें भागको भी रूपी बनाया जाय तो वह इस लोक तथा अलोक तक फैले हए अनन्त आकाशमें भी नहीं समा सकता।" योगशास्त्रमें भी कहा है कि-"स्वर्ग, पाताल तथा मर्त्यलोकमें सुरेन्द्र, असुरेन्द्र तथा नरेन्द्रोंको जो कुछ भी सुख होता है वह सबका सब मिल करके भी मोक्ष सुखके अनन्तवें भागको बराबरी नहीं कर सकता।" मोक्षका सुख स्वाभाविक है, नियत शक्तिवाली इन्द्रियोंकी अपेक्षा न रखनेके कारण अतीन्द्रिय है तथा कभी नष्ट नहीं होनेके कारण नित्य है। इसीलिए यह मोक्ष धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चार पुरुषार्थों में परम पुरुषार्थ तथा चतुर्वर्ग शिरोमणि कहा गया है।" ६२४६. मुक्त जीवोंको सुखमय होनेमें वादियोंमें तीन प्रकारके विवाद पाये जाते हैं। वैशेषिकोंका कहना है कि जब मुक्तिमें आत्माके बुद्धि सुख-दुःख आदि विशेष गुणोंका उच्छेद हो जाता है तब आत्मा सखमय कैसे हो सकतो है? बोट इनसे भी बढकर हैं वे मोक्ष: आत्माका ही सद्भाव नहीं मानते। उनका तात्पर्य है कि--मुक्ति अवस्थामें चित्त सन्तानका अत्यन्त उच्छेद हो जानेसे चित्त प्रवाह रूप आत्माको सत्ता ही जब नहीं है तब सुख होगा किसे ? सांख्य आत्माकी नित्य सत्ता मानकर भी उसे मुक्तिमें भोक्ता नहीं मानते । अतः सुख भले ही रहो, पर जब आत्मा उसे भोगता ही नहीं है तब मोक्षको सुखमय कैसे कह सकते हैं ? ६२४७. इनमें सबसे पहले वैशेषिक लोग अपनी बुद्धिकी विशेषता बताते हुए कहते हैं वैशेषिक-(पूर्वपक्ष)-मोक्ष अवस्थामें आत्माको विशुद्ध ज्ञान सुखादिरूप मानना उचित नहीं है। क्योंकि जब बुद्धि सुख आदि आत्माके विशेष गुणोंके उच्छेदको मोक्ष कहते हैं तब उसमें शुद्ध ज्ञान आदिका सद्भाव कैसे हो सकता है ? जब प्रत्यक्षादि प्रमाणोंसे प्रसिद्ध आत्माका तत्त्व १. -शास्त्रेऽपि सुरा-भ. २। २. "नवानामात्मविशेषगुणानामत्यन्तोच्छित्तिर्मोक्षः ।" -प्रश. व्यो. पृ. ६३८ । न्यायमं. पृ. ५०८। ३. प्रत्यक्षप्रमा-भ. २। ४. "नवानामात्मगुणानां संतानोऽत्यन्तमुच्छिद्यते, संतानत्वात्, यो यः संतानः सः सोऽत्यन्तमच्छिद्यमानो दृष्टः यथा प्रदोपसंतानः, तथा चायं सन्तानः, तस्माद् अत्यन्तमुच्छिद्यते ।" -प्रश. व्यो. पृ. २०, क.। “दुःखसंततिरत्यन्तमुच्छिद्यते संततित्वात प्रदीपसंततिवदित्याचार्याः।" -प्रश. किर. पृ.९। Jain Education Interational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy