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- का० ५२. ६ २४५ ]
जैनमतम् ।
प्रायापरिज्ञानात् प्राणा हि द्विविधाः, द्रव्यप्राणा भावाप्राणाश्च । मोक्षे च द्रव्यप्राणानामेवाभावः, न पुनर्भाव प्राणानाम् । भावप्राणाश्च मुक्तावस्थायामपि सन्त्येव । यदुक्तम् - ""यस्मात्क्षायिकसम्यक्त्व वीर्यदर्शनज्ञानैः । आत्यन्तिकैः स युक्तो निर्द्वन्द्वेनापि च सुखेन ॥ १ ॥
ज्ञानादयस्तु भावप्राणा मुक्तोऽपि जीवति स तैहि । तस्मात्तज्जीवत्वं नित्यं सर्वस्य जीवस्य ॥२॥ | "
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ततश्चानन्तज्ञानानन्तदर्शनानन्तवीर्यानन्तसुखलक्षणं जीवनं सिद्धानामपि भवतीत्यर्थः ।
सुखं च सिद्धानां सर्वसंसारसुखविलक्षणं परमानन्दमयं ज्ञातव्यम् । उक्तं च"नवि अत्थि माणुसणं तं सुक्खं नेव सव्वदेवाणं । सिद्धाणं सुक्खं अव्वाबाहं उवगाणं ||१|| सुरगणसुहं समग्गं सव्वद्धा पिंडियं अनन्तगुणं । नवि पावइ मुत्तिसुहं णन्ताहिवि वग्गग्गूहि ||२|| सिद्धस्स सुहो रासी सम्वद्धा पिडिउं जइ हविज्जा | सोऽणत वग्गभइओ सव्वागासे न माइज्जी ||३||”
प्राणोंका धारण करना तथा श्वासोच्छ्वास लेना । यदि प्राण हो नहीं हैं तब जीवन कैसा ? उन्हें जी क्यों कहा जाय ? वे तो सोलह आने अजीव हो गये । और अजीव को तो मोक्ष होता नहीं है अतः उन्हें मुक्त भी नहीं कह सकते ।
समाधान - आप अभिप्रायको ठीक तरह समझे बिना ही अण्ट-सण्ट शंका ठोक देते हो । जैन सिद्धान्तमें प्राण दो प्रकारके माने गये हैं- एक द्रव्यप्राण और दूसरे भावप्राण । मोक्षमें शुद्ध जीवोंके पांच इन्द्रियाँ, मनोबल, वचनबल, कायबल, आयु और श्वासोच्छ्वास इन दस प्रकार के द्रव्यप्राणों का ही अभाव हुआ है ज्ञान दर्शन जीवत्व आदि भावप्राणोंका नहीं । ये द्रव्यप्राण संसारी अवस्थामें चैतन्यकी अभिव्यक्ति में सहायता करते हैं तथा उसे एक शरीर में जीवन देते हैं शुद्ध आत्माको, जिसका चैतन्य अपने पूर्णरूपमें विकसित हो चुका है, इन द्रव्य प्राणोंकी कोई आवश्यकता नहीं है वह तो अपने स्वाभाविक ज्ञान दर्शन आदिसे सदा जीव रहता है । भावप्राण तो मुक्त अवस्था में पूर्ण रूपसे विद्यमान हैं हो। कहा भी है- " मुक्त जीव क्षायिक सम्यग्दर्शन, अनन्तवीर्य, अनन्तदर्शन, केवलज्ञान तथा अबाधित अनन्त सुखसे युक्त है । उसमें ये गुण अपना स्वाभाविक पूर्ण विकास कर चुके हैं। ज्ञान दर्शन आदि भावप्राण हैं । मुक्त जीव इन्हीं भावप्राणों
जीता है अत: उसमें नित्य ही जीवन रहता है। इस तरह मुक्त जीवों में भी जीवत्व सिद्ध होनेपर समस्त जीवोंमें नित्य जीवत्वकी सत्ता सिद्ध हो जाती है।" इस तरह अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तवीर्य और अनन्त सुख रूप भावप्राण भावजीवन सिद्धों में भी है ही ।
१. यस्मात्सततं क्षा - म. २ । २. नन्दरूपं ज्ञा-भ १, २, प १, २, क. । ३. आह च परमेश्वरः म. २ । उक्तं च सिद्धान्ते प १, २, भ. १ । ४. -ज्जा इत्यादि तथा म. २ । नापि अस्ति मनुष्याणां तत्सुखं नैव सर्वदेवानाम् । यत् सिद्धानां सुखमव्याबावमुपगतानाम् || सुरगणसुखं समग्रं सर्वाद्धा पिण्डितम् अनन्तगुणम् । नापि प्राप्नोति मुक्तिसुखम् अनन्ताभिरपि वर्गवर्गः ॥ सिद्धस्य सुखं राशिः सर्वाद्धा पिण्डितं यदि भवेत् । तदनन्तभागवर्गभाजितः सर्वाकाशे न मायात् ॥
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