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________________ २८२ षड्दर्शनसमुच्चये [का०५२.६२४५एरण्डयन्त्रपेडासु, बन्धच्छेदाद्यथा गतिः । कर्मबन्धनविच्छेदात्सिद्धस्यापि तथेष्यते ॥ ४ ॥ ऊर्ध्वगौरवधर्माणो, जीवा इति जिनोत्तमैः। अधोगौरवधर्माण: पुद्गला इति चोदितम् ॥ ५॥ यथाधस्तियंगूध्वं च, लोष्टवाय्वग्निवीचयः । स्वभावतः प्रवर्तन्ते, 'तथोर्ध्वगतिरात्मनः ॥ ६ ॥ अधस्तिर्यक् तथोवं च, जीवानां कर्मजा गतिः । ऊर्ध्वमेव तु तद्धर्मा, भवति क्षीणकर्मणाम् ॥ ७॥ ततोऽप्यर्ध्वगतिस्तेषां, कस्मान्नास्तीति चेन्मतिः। धर्मास्तिकायस्याभावात्, स हि हेतुर्गतेः परम् ॥ ८॥" [त. भा. १०७ ] धर्मास्तिकायस्थ गतिहेतुत्वं पुरापि व्यवस्थापितमेवेति । ६२४५. ननु भवतु कर्मणामभावेऽपि पूर्वप्रयोगादिभिर्जीवस्योर्ध्वगतिः, तथापि सर्वथा शरीरेन्द्रियादिप्राणानामभावान्मोक्षे जीवस्याजीवत्वप्रसङ्गः। यतो जीवनं प्राणधारणमुच्यते, तच्चे. नास्ति. तदा जीवस्य जीवनाभावादजीवत्वं स्यात. अजीवस्य च मोक्षाभाव इति चेत। नः अभि. सम्बन्धसे खूब गमन किया है आज भले ही गमन करानेवाले कर्मका सम्बन्ध छूट जाय परन्तु पूर्वके गमन प्रयोगके कारण वह ऊध्वंगति करता ही है। जिस प्रकार मिट्टीसे लिपटी हुई तूम्बड़ो पानीमें मिट्टीका लेप धुल जानेपर ऊपर उतरा आती है उसी तरह कर्म लेपके धुल जानेपर सिद्ध जीवोंको ऊपरकी ओर गति होना स्वाभाविक ही है। जिस प्रकार एरण्डके फलका बकला फटते ही बीज ऊपरको उचटता है तथा जिस तरह ब्रेक-रुकावट हटते ही यन्त्रका चक्र खूब पूरे वेगसे गति करता है उसी तरह कर्म बन्धनके टूटते ही यह शुद्ध जीव ऊपरको गति करता है। जिनेन्द्रदेवने जीवोंको ऊर्ध्व गौरव धर्मवाला तथा पुद्गलोंको अधोगौरव धर्मवाला बताया है। जीवों में ऐसा गौरव है जिससे वे स्वभावतः ऊपरको गमन करते हैं तथा पुद्गलोंमें ऐसा गौरव है जिससे वे नीचेकी ओर गिरते हैं। जिस प्रकार पत्थर स्वभावसे ही नोचेकी ओर गिरता है, वायु तिरछी बहती है, तथा अग्निकी ज्वालाएं ऊपरको जाती हैं उसी तरह आत्माकी भी ऊर्ध्वगति स्वाभाविक ही है। जीव कर्मोंके संसर्गसे नीचे नरकमें, ऊपर स्वर्गमें तथा तिरछे मध्यलोकमें न करते हैं. यह उनकी कर्मजन्य अस्वाभाविक गति है। परन्त जब ये जीव नीचे या तिरछे घुमानेवाले कर्मोंसे छूटकर शुद्ध हो जाते हैं तब उनकी गति स्वभावतः ऊपरको ही ओर होती है। लोकसे भी ऊपर अलोकाकाशमें तो सिद्ध जीवोंकी गति इसलिए नहीं होती कि वहां गमन करने में असाधारण सहायता देनेवाला धर्मद्रव्य नहीं है। यदि वहां धर्मद्रव्य होता तो अवश्य ही गति हो सकती थी, पर धर्म द्रव्य तो लोकाकाशमें पाया जाता है अलोकमें नहीं।" 'धर्मास्तिकाय गमनमें सहायक है' यह पहले सिद्ध कर चुके हैं। ६२४५. शंका-अच्छा, कर्मोंके अभावसे आपके मुक्त जीव पूर्व प्रयोग आदिसे ऊपरको खूब गमन करें और लोकान्तमें विराजमान भी हो जायें, परन्तु जब मोक्षमें शरीर, इन्द्रियाँ तथा श्वासोच्छ्वास आदि जीवन सामग्री नहीं है तब वे अजीव-जड़ ही हो जायेंगे। जीवनका अर्थ है १. तथोवं गति-म. १, २, प.१,२। २. -व च भ. १, २, प.१,३। -व स्वभावेन भवति क.। ३. परम् आ., क. । पर इति म.१,२। ४. -मेव ननु भ.२। ५.-ध्वं गतिः भ. १, २, प. १,२, क. । ६. -पि शरी-भ. १,२, प. १,२। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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