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________________ -का० ५२६२४४] जैनमतम् । २८१ ६२४२. अथ रागादयो धर्मा धर्मिण आत्मनो भिन्नाः, अभिन्ना वा। भिन्नाश्चेत्, तदा सर्वेषां वीतरागत्वसिद्धत्वप्रसङ्गः, रागादिभ्यो भिन्नत्वात्, मुक्तात्मवत् । अभिन्नाश्चेत् तदा तेषां क्षये धर्मिणोऽपि क्षय इति । २४३. तदयुक्तम्, भेदाभेदपक्षस्य जात्यन्तरस्याभ्युपगमात् । कथमिति चेत् । उच्यते। धमिधर्माणां न भेद एव, अभेदस्यापि सत्त्वात् । नाप्यभेद एव, भेदस्यापि सद्भावात् । ततो नोक्तदोषावकाश इति । ६२४४. अथ कार्मणशरीरादेः सर्वथावियोगे कथं जीवस्योलमालोकान्तं गतिरिति चेत् । पूर्वप्रयोगादिभिस्तस्योर्ध्वगतिरिति बूमः । तदुक्तं तत्वार्थभाष्ये "तदनन्तरमेवोलमालोकान्तात्स गच्छति । पूर्वप्रयोगासङ्गत्वबन्धच्छेदोवंगौरवैः ॥ १ ॥ कुलालचक्रे दोलायामिषौ चापि यथेष्यते। पूर्वप्रयोगात्कर्मेह, तथा सिद्धगतिः स्मृता ॥२॥ मृल्लेपसङ्गनिर्मोक्षाद्यया दृष्टाप्स्वलाबुनः। कर्मसङ्गविनिर्मोक्षात्, तथा सिद्धगतिः स्मृता ॥ ३ ॥ हो ही नहीं सकता कि 'जो अनादि है वह नष्ट नहीं होता। २४२. शंका-रागादि धर्म आत्मासे भिन्न हैं कि अभिन्न ? यदि रागादि धर्म आत्मासे भिन्न हों तो सभी आत्माएँ अनायास ही रागादिरहित होकर मुक्त जीवोंकी तरह वीतरागी बन जायेंगी क्योंकि रागादि तो आत्मासे भिन्न हैं ही। यदि रागादि धर्म आत्मासे अभिन्न हैं तो रागादिके नाश होनेपर आत्माका भी नाश होना चाहिए। धर्मके नाश होनेपर उससे अभिन्न अर्थात् तद्रूप धर्मीको नष्ट हो ही जाना चाहिए। ६२४३. समाधान हम लोग न तो धर्म और धर्मीका सर्वथा भेद ही मानते हैं और न अभेद ही। किन्तु सर्वथा भेद और अभेदसे विलक्षण कथंचिद् भेदाभेद मानते हैं। रागादि और आत्माको पृथक-पृथक् नहीं रख सकते अतः वे अभिन्न हैं रागादिके नाश या उत्पाद होनेपर भी आत्माका नाश या उत्पाद नहीं होता अतः वे भिन्न हैं। इसलिए अत्यन्त भेद और अभेद पक्षमें आनेवाले दोष कथंचिद् भेदाभेदमें लागू नहीं हो सकते। ६२४४. शंका-जब कार्माण शरीर आदिका अत्यन्त वियोग हो गया तब यह जीव क्यों लोकके अग्रभाग तक ऊपर गमन करता है ? क्योंकि गमन आदिमें कारण तो कार्माण शरीर ही था, जब वह नष्ट हो गया तब शुद्ध जीव किस कारणसे ऊपरको जाता है ? समाधान-पूर्वके गमन करनेके संस्कार आदिसे शुद्ध जीवकी ऊर्ध्वगति होती है । तत्त्वार्थभाष्यमें इसका बहत सुन्दर तथा सयुक्तिक विवेचन इस प्रकार किया गया है-"कर्म बन्ध छूटनेके बाद ही यह जीव लोकके ऊपरी भाग तक ऊर्ध्वगमन करता है। इस ऊर्ध्वगमनके कारण हैं-पूर्व प्रयोग, असंगत्व-निर्लेप, बन्धच्छेद-निर्बन्ध तथा ऊवं गौरव स्वभाव । जिस प्रकार कुम्हारके चाकको एक बार घुमा देनेपर पीछे घुमानेवाला डण्डा हट भी जाय तब भी वह पूर्व प्रयोगके कारण बहुत देर तक अपने-आप घूमता रहता है अथवा जिस प्रकार झूलाको एक बार झुलानेपर वह पीछे अपने आप झूलता रहता है अथवा जैसे बाणको एक बार अच्छी तरह खींचकर छोड़नेपर वह बहुत दूर तक पूर्व प्रयोगके कारण स्वतः चला जाता है उसी तरह इस जीवने कर्मके १. -श अथ म. २ । २. चेन्नैवं पूर्व-भ. २ । ३. -ध्वंगति-आ. । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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