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________________ २८० षड्दर्शनसमुच्चये [ का० ५२. ६२४१$२४१. तदयुक्तम्; द्विविधं हि बाध्यं, सहभूस्वभावं सहकारिसंपाद्यस्वभावं च। तत्र यत्सहभूस्वभावं, तन्न बाधकोत्कर्षे कदाचिदपि निरन्वयं विनाशमाविशति । ज्ञानं चात्मनः सहभूस्वभावम् । आत्मा च परिणामिनित्यः, ततोऽत्यन्तप्रकर्षवत्यपि ज्ञानावरणीयकर्मोदये ज्ञानस्य न निरन्वयो विनाशः। रागादयस्तु लोभादिकर्मविपाकोदयसंपादितसत्ताकाः, ततः कर्मणो निर्मलमपगमे तेऽपि निर्मूलमपगच्छन्ति । प्रयोगश्चात्र-ये सहकारिसंपाद्या यदुपधानादपकर्षिणः ते तदत्यन्त. वृद्धौ 'निरन्वयविनाशधर्माणः, यथा रोमहर्षादयो वह्निवद्धौ । भावनोपधानादपकर्षिणश्च सहकारिकर्मसंपाद्या रागादय इति । अत्र 'सहकारिसंपाद्या' इति विशेषणं सहभूस्वभावज्ञानादिव्यवच्छे. दार्थम् । यदपि च प्रागुपन्यस्त प्रमाणं 'यदनादिमत्, न तद्विनाशमाविशति' इति, तदप्यप्रमाणम् प्रागभावेन हेतोर्व्यभिचारात् । प्रागभावो ह्यनाविमानपि विनाशमाविशति, अन्यथा कार्यानुत्पत्तेः । काञ्चनोपलयोः संयोगेन च हेतुरनैकान्तिकः। तत्संयोगोऽपि ह्यनादिसंततिगतोऽपि क्षारमृत्पुटपाकादिनोपायेन विघटमांनो दृष्ट इति । , २४१. समाधान-बाधित होनेवाली वस्तुएं दो प्रकारकी होती हैं-एक तो स्वाभाविक और दूसरी सहकारियोंसे उत्पन्न होनेवाले आगन्तुक विकार । जो स्वाभाविक धर्म हैं, उनका प्रतिपक्षीका अत्यन्त उत्कर्ष होनेपर भी कभी भी समूल नाश नहीं होता। ज्ञान आत्माका ऐसा ही स्वाभाविक धर्म है, अतः ज्ञानावरणीय कर्मों का कितना ही तीव्र उदय क्यों न हो उसका जडसे नाश नहीं हो सकता। यदि ज्ञानका समूल नाश हो जाय, तो उस समय आत्माका भी नाश नियमसे हो जायेगा वह बच नहीं सकता। आत्मा परिणमनशील होफर भी द्रव्य रूपसे नित्य है अतः ज्ञानावरणीय कर्मके कारण ज्ञान में न्यूनाधिकता रूपसे परिवर्तन होनेपर भी द्रव्य-मूल स्वभावका विनाश नहीं किया जा सकता। उसकी नित्यताका तात्पर्य ही यह है कि वह कभी भी ज्ञानस्वरूपसे अज्ञानस्वरूपमें परिवर्तित नहीं हो सकती। राग आदि वासनाएं तो लोभ आदि कर्मों के उदयसे उत्पन्न होनेवाले विकार हैं, आगन्तुक हैं। स्वाभाविक नहीं हैं। अतः जब लोभ आदिको उत्पन्न करनेवाले कर्म पुद्गलोंका समूल उच्छेद हो जायेगा तब इनकी सत्ता तो अपने ही आप समाप्त हो जायेगी। जो विकार सहकारियोंसे उत्पन्न होते हैं स्वाभाविक नहीं हैं वे जिस प्रतिपक्षी भावनासे कम होते हैं या मन्द पड़ते हैं, उस प्रतिपक्षी भावनाको अत्यन्त वृद्धि होनेपर उनका समूल नाश हो जाता है। जैसे ठण्डकसे होनेवाले रोमांच अग्निके पूरी तरह जल जानेपर नष्ट हो जाते हैं उनका नामोनिशां नहीं रहता उसी तरह विरागी भावनाओंसे मन्द पड़नेवाले बाह्य कर्मोंसे उत्पन्न रागादि भावोंका भी विरागी भावनाओंकी अत्यन्त वृद्धि होनेपर समूल नाश हो हो जाना चाहिए। इस अनुमानमें सहकारिसंपाद्य-'जो यथार्थ आगन्तुक कारणोंसे उत्पन्न हैं स्वाभाविक नहीं हैं'-विशेषण आत्माके सदा स्थायी स्वाभाविक ज्ञान आदि धर्मोके समूल नाशका व्यवच्छेद करनेको दिया है। तथा यह भी तो नियम नहीं हो सकता कि-'जो अनादि हैं उनका विनाश होवे नहीं' ? देखिए-प्रागभाव अनादि है परन्तु उसका विनाश देखा जाता है। यदि प्रागभावका नाश न हो तो कार्योंकी उत्पत्ति ही नहीं हो सकेगी। अतः आपका उक्त नियम प्रागभाव ( जबतक कार्य उत्पन्न नहीं होता तबतक उस कार्यका अभाव ) से व्यभिचारी है। खानिसे निकले हुए मलिन सुवर्णमें रहनेवाले सुवर्ण और पत्थर आदिके संयोगसे भी यह नियम व्यभिचारी होता है । जो सोना अनादिकालसे खदानमें पड़ा था, आज वह निकाला गया। उसके साथ पत्थर आदिका भी संयोग अनादि कालसे ही रहा है, परन्तु सुहागा आदि तीक्ष्ण पदार्थों के साथ जब उसे मिट्टीकी घरियामें पूरी तरह तपाया जाता है तब वह पत्थरका अनादिकालका भी संयोग क्षणभरमें खतम हो जाता है और सोना अपनी शुद्ध अवस्थामें निखर आता है। अतः यह कोई नियम १. तत्र सहभू स्वभावं यत्तन्न म. २ । २. -यनाशि ध-म. २ । ३. -नुपपत्तेः म. २ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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