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-का. ५२.६२४०] जैनमतम् ।
२७९ ६२३८. अत्र पर आह, ननु भवतु देहस्यात्यन्तिको वियोगः तस्य सादित्वात्, परं रागा. दिभिः सहात्यन्तिको वियोगोऽसंभवी प्रमाणबाधनात् । प्रमाणं चेवम्-यदनादिमत् न तद्विनाशमाविशति यथाकाशम् । अनादिमन्तश्च रागावय इति चेत् ।
२३९. उच्यते, यद्यपि रागादयो दोषा जन्तोरनादिमन्तः-तथापि कस्यचिद्ययावस्थितस्त्रीशरीरादिवस्तुतत्त्वावगमेन तेषां रागादीनां प्रतिपक्षभावनातः प्रतिक्षणमपचयो दृश्यते । ततः संभाव्यते विशिष्टकालादिसामग्रीसद्भावे भावनाप्रकर्षतो निर्मूलमपि क्षयः, निर्मूलक्षयानभ्युपगमेऽपचयस्याप्यसिद्धेः। यथा हि-शीतस्पर्शसंपाद्या रोमहर्षादयः शीतप्रतिपक्षस्य वह्नमन्दतायां मन्दा उपलब्धा उत्कर्षे च निरन्वयविनाशिनः। एवमन्यत्रापि मन्दतासद्भावे निरन्वयविनाशोऽवश्यमेष्टव्यः।
.६२४०. अथ यथा ज्ञानावरणीयकर्मोदये ज्ञानस्य मन्दता भवति तत्प्रकर्षे च ज्ञानस्य न निरन्वयो विनाशः, एवं प्रतिपक्षभावनोत्कर्षेऽपि न रागादीनामत्यन्तमुच्छेदो भविष्यतीति।
२३८. शंका-देह तो उत्पन्न होता है, सादि है अतः मोक्ष अवस्थामें उसके नाशकी बात तो समझमें आती है क्योंकि जो बीज उत्पन्न होता है उसका एक न एक दिन नाश होता ही है। पर राग आदि अनादिकालीन वासनाओंका अत्यन्त विनाश बुद्धिगम्य नहीं है। अनादि वस्तुका विनाश तो प्रमाणसे बाधित है। जो अनादि होते हैं, जो कभी उत्पन्न नहीं हुए उनका नाश नहीं होता जैसे कि अनादि कालसे बराबर चले आनेवाले आकाशका। ये रागादिभाव भी आत्मामें अनादिकालसे ही रहते हैं। अतः इन पुश्तैनी चोजोंका नाश करना न तो युक्तिसंगत है और न उचित ही।
२३९. समाधान-यद्यपि रागादि दोष अनादि कालसे इस आत्माके सगे-सम्बन्धी ही रहे हैं फिर भी प्रतिपक्षी-विरागी भावनाओंसे इनका नाश होता ही है। देखो. कोई स्त्री में अत्यन्त आसक्त कामी व्यक्ति जब स्त्रोके शरीरको वास्तविक रूप में मल, मूत्र, मांस, हड्डी, रक्त आदिका एक लोथड़ा ही समझ लेता है तब उसके रागका स्रोत इतना सूख जाता है कि वह उस स्त्रीको एक क्षण भी आँख भरकर देखना नहीं चाहता। जब हम प्रतिपक्षी भावनाओंसे राग आदिका क्रमशः कम होना देखते हैं तब विशिष्ट समय आदि सामग्रोके मिलनेपर प्रतिपक्षी-विरागी भावनाओंकी पूरी बढ़ती होनेसे अवश्य ही रागादिका समूल उच्छेद हो सकता है। यदि प्रतिपक्षी भावनाएं अपनी आखिरी हदपर पहुँचकर भी रागको बिलकुल समूल नष्ट नहीं कर सकतीं तो उनसे रागकी कमती न्यूनता भी नहीं होनी चाहिए। जिस प्रकार कड़ी सरदीसे ठिठुरकर शरीरमें होनेवाले रोमांच शीतकी विरोधी आगके मन्द रूपसे सुलगनेपर कम हो जाते हैं तथा खूब धधककर जल उठनेपर समूल नष्ट हो जाते हैं। इसी तरह जब विरागी भावनाओंकी तीन ध्यानाग्नि पूरी तरह जल उठेगी तब राग आदिकी नमी-गीलापन भी आत्मासे बिलकुल उड़ जायेगी। इस तरह अनादिकालीन रागादि भी प्रबल विपक्षीके मिल जानेपर अत्यन्त नष्ट हो जाते हैं।
२४०. शंका-जिस प्रकार ज्ञानावरण कर्मके उदय होनेपर ज्ञान में मन्दता तो होती है परन्तु ज्ञानावरणका कितना ही तीव्र उदय क्यों न हो, पर उससे ज्ञानका समूल नाश तो न होता ही है और न आप ही मानते हैं उसी तरह विरागी भावनाओंसे क्रमशः मन्द पड़नेवाले भी रागको उन भावनाओंकी हदसे भी ज्यादा बाढ़ समूल नष्ट नहीं कर सकेगी। कुछ न कुछ रागांश बच हो जायेगा।
१.-गो न संभवी भ. २। २. इत्युच्यते आ., क., म. १, प. १,२। ३.-स्य च व-आ., क. । ४. -त्राप्यमन्दता-आ., क.। ५. -ता निरन्वयविनाशोऽवश्यमेव द्रष्टव्यः म. २। ६.-नामच्छेदो म.२।
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