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षड्दर्शनसमुच्चये
[का० ५२. ६२३५ - ६२३५. निर्जरातत्त्वमाह
बद्धस्य कर्मणः साटो यस्तु सा निर्जरा मता।
आत्यन्तिको वियोगस्तु, देहादेर्मोक्ष उच्यते ॥५२॥ __ २३६. व्याख्या-यस्तु बद्धस्य-जीवेन संबद्धस्य कर्मणो-ज्ञानावरणादेः साटः-सटनं द्वादशविधेन तपसा विचटनं सा निर्जरा मता संमता। सा च द्विधा, सकामाकामभेदात् । तत्राद्याचारित्रिणां दुष्करतरतपश्चरणकायोत्सर्गकरणद्वाविंशतिपरीषहपरिषहणपराणां' लोचादिकायक्लेशकारिणामष्टादशशीलाङ्गधारिणां बाह्याभ्यन्तरसर्वपरिग्रहपरिहारिणां निःप्रतिकर्मशरीरिणां भवति । द्वितीया त्वन्यशरीरिणां तीव्रतरशारीरमानसानेककटुकदुःखशतसहस्रसहनतो भवति ।
$ २३७. अथोत्तरार्धेन मोक्षतत्त्वमाह-'आत्यन्तिकः' इत्यादि । देहादेः-शरीरपञ्चकेन्द्रियायुरादिबाह्यप्राणपुण्यापुण्यवर्णगन्धरसस्पर्शपुनर्जन्मग्रहणवेदत्रयकषायादिसङ्गाज्ञानासिद्धत्वादेरा - त्यन्तिको वियोगो विरहः पनर्मोक्ष इष्यते । यो हि शश्वद्भवति न पुनः कदाचिन्न भवति, स आत्यन्तिकः।
$२३५. अब निर्जरातत्त्वका कथन करते हैं -
बंधे हुए कर्मोंके साट-झड़नेको निर्जरा कहते हैं । कर्मोंका अत्यन्त वियोग होनेपर शरीर आदिसे भी सम्बन्ध छूट जाना मोक्ष कहलाता है ।।५२॥
६२३६. जीवसे चिपटे हुए ज्ञानावरण आदि कर्मोंको बारह प्रकारके तप या अन्य धर्म आदि उपायोंसे उचटाना-झड़ा देना निर्जरा कहलाती है। यह निर्जरा सकाम और अकामके भेदसे दो प्रकारको है । 'कर्मोको झड़ा देनेकी इच्छासे जो साधु दुष्कर तप तपते हैं, रात्रिमें श्मशान आदि भयावने स्थानों में खड़े होकर ध्यान करते हैं, भूख-प्यास, सरदी-गरमी आदिको बाईस परीषह-बाधाएं सहते हैं, बालोंको लोंचते हैं, अठारह प्रकारके शीलोंको धारण कर पूर्ण ब्रह्मचर्यका पालन करते हैं, बाह्य स्त्री-पुत्रादि तथा आभ्यन्तर राग-द्वेष-मोहादि सभी परिग्रहोंका त्याग करते हैं, जिन्हें अपने शरीरसे भी मोह नहीं है उन उग्रतपश्चरण करनेवाले देहका अनेक उपायोंसे दमन करनेवाले साधुओंके सकाम-इच्छापूर्वक की जानेवाली-निर्जरा होती है। ये साधु कर्मोको जान-बूझकर एक-एकको ढूंढ-ढूंढ़कर झड़ा देते हैं। यही निर्जरा वस्तुतः कार्यकारिणी एवं पुरुषार्थसे होनेवाली है। जो शान्त परिणामी व्यक्ति कर्मोंके उदयसे होनेवाले लाखों प्रकारसे तीव्र शारीरिक तथा मानसिक दुःखोंको सातासे भोग लेते हैं उनके अकाम-( आये हुए कर्मोको सहना न कि उन्हें झड़ानेकी इच्छासे छेड़खान करना ) निर्जरा होती है। सकाम निर्जरामें कर्मोंको जबरदस्ती पकड़-पकड़कर उदयमें लाकर रुखसत किया जाता है उन्हें खारिज किया जाता है जब कि अकामनिर्जरामें कर्म अपने आप समय पर पेन्शन ले लेते हैं, रिटायर्ड हो जाते हैं।
६२३७. शरीर, पांचों इन्द्रियाँ, आयु आदि बाह्य प्राण, पुण्य, पाप, रूप, गन्ध, रस, स्पर्श; फिरसे शरीर ग्रहण, स्त्री-पुरुष और नपुंसक वेद, कषाय आदि परिग्रह, अज्ञान तथा असिद्धत्व आदिका आत्यन्तिक वियोग होना ही मोक्ष है । इन देहादिका एक बार नष्ट होकर फिरसे उत्पन्न नहीं होना ही आत्यन्तिक नाश है। इनका इस प्रकारका नाश हो कि वह नाश सदा बना रहेअनन्तकाल तक वह नाश जैसाका तैसा रहे। ये देह आदि उत्पन्न होकर उस नाशका अभाव न कर सकें। नाशके इस सदा स्थायित्वको ही आत्यन्तिक कहते हैं।
१.-परिषहपराणां आ., क.। २.-शरीरमा-आ., क., प. १,२।
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