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-का० ५१.६२३४] जैनमतम् ।
२७७ ६२३३. उच्यते; इयमेव तावदस्थानारेकाप्रक्रिया भवतोऽनभिज्ञता ज्ञापयति, यतः केनामूर्तताभ्युपेतात्मनः । कर्मजीवसंबन्धस्यानादित्वादेकत्वपरिणामे सति क्षीरोदकवन्मूर्त एव कर्मग्रहणे व्याप्रियते, न च हस्तादिव्यापारादेयं कर्म, किंतु पौद्गलमपि सदध्यवसायविशेषाद्रागद्वेषमोहपरिणामाभ्यञ्जनलक्षणादात्मनः कर्मयोग्यपुद्गलजालश्लेषणमावानं स्नेहाभ्यक्तवपुषो रजोलगनवदिति। प्रतिप्रदेशानन्तपरमाणुसंश्लेषाज्जीवस्य कर्मणा सह लोलीभावात्कथंचिन्मूतत्वमपि संसारावस्थायामभ्युपगम्यत एव स्याद्वादवादिभिरिति ।
5२३४. स च प्रशस्ताप्रशस्तभेदाद् द्वेधा। प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशभेदाच्च' चतुर्धा । प्रकृतिः-स्वभावो यथा ज्ञानावरणं ज्ञानाच्छादनस्वभावमित्यादि । स्थिति:--अध्यवसायकृतः कालविभागः । अनुभागो-रसः। प्रदेश:-कर्मदलसंचय इति । पुनरपि मूलप्रकृतिभेदावष्टधा ज्ञानावरणादिकः। उत्तरप्रकृतिभेदादष्टपञ्चाशदधिकशतभेदः । सोऽपि तीवतीव्रतरमन्दमन्दतरादिभेदादनेकविध इत्यादि कर्मग्रन्थादवसेयम् । उक्तं बन्धतत्त्वम् । कैसे ग्रहण कर सकता है ? ग्रहण करने की शक्ति तो हाथवालोंके होती है। ____ २३३. समाधान-इसी प्रकारको बेमोकेको भद्दो शंकाएँ आपकी मूर्खताका खुला प्रदर्शन कर देती हैं। आत्माको सर्वथा अमूर्त मानता ही कौन है ? कर्म और जीवका अनादिकालीन सम्बन्ध होनेसे दूधमें मिला हुआ पानी जिस प्रकार दूध जैसा ही हो जाता है उसी तरह यह आत्मा भी मूर्त हो रहा है। और यही कर्मशरीरवाली मूर्त आत्मा नये कर्मों को अपनी ओर खींचकर उन्हें उसी कर्मशरीरसे चिपटा लेती है। कम हाथसे उठानेकी स्थूल चीज़ नहीं हैं। ये तो पुद्गलोंके अत्यन्त सूक्ष्म भाग हैं। जब आत्मामें राग, द्वेष, मोह या अन्य विकारी भावोंकी चिकनाई आती है तभी यह पुद्गल कर्मोको अत्यन्त बारीक धूल उसपर आकर जम जाती है। जिस प्रकार तेल लगे हुए शरीरपर धूल स्वभावतः ही आकर जम जाती है और मैलका रूप धारण कर हवासे उड़ने लायक नहीं रहती उसी तरह राग-द्वेष आदि चिकनाईसे जमे हुए कर्म प्रायः अपना फल दिये बिना नहीं झड़ते। कर्मके योग्य पुद्गल धूलिको चिपकाने में कारणभूत चिकनाईका होना तथा उससे कारण कर्मोंका चिपकना ही उनका ग्रहण करना है। इस तरह संसारी अवस्थामें आत्माके प्रत्येक प्रदेशसे कर्मोके अनन्त परमाणुओंका एक लोली-भाव-बिलकुल घुलमिलकर सम्बन्ध हो रहा है इसीलिए स्याद्वादी जैन आत्माको कथंचित् मूर्त भी स्वीकार करते हैं।
६२३४. बन्ध शुभ और अशुभके भेदसे दो प्रकारका है। इसके चार भेद भी हैं-१ प्रकृति बन्ध, २ स्थितिबन्ध, ३ अनुभाग बन्ध, ४ प्रदेश बन्ध । प्रकृति-स्वभाव, जैसे ज्ञानावरणका स्वभाव है ज्ञानको ढंकना, प्रकट नहीं होने देना। स्थिति अपने कषाय रूप परिणामोंके अनुसार कर्मकी ठहरनेकी मर्यादा । अनुभाग-रस तीन मन्द या मध्यम रूपसे फल देने की शक्ति । प्रदेश-कर्मके परमाणुओंका संचित होना। ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय, अन्तराय, वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र रूप मूल प्रकृतियोंके भेदसे आठ प्रकारका है। इनकी उत्तर प्रकृतियां तो एक सौ अट्ठावन १५८ होती हैं। इनके भी तीव्र तीव्रतर, मन्द मन्दतर आदि तारतम्यसे होनेवाले अनेकों भेद हैं। इन भेदोंका विशद और विस्तृत वर्णन कर्म ग्रन्थोंसे जान लेना चाहिए। बन्ध तत्त्वका कथन हो चुका।
१. च्च चतुविधा आ., क. । -च्चतुर्षा म. ।। "प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशास्तद्विधयः ।" -त. सू. ८।३। २. "आद्यो ज्ञानदर्शनावरणवेदनीयमोहनीयायुर्नामगोत्रान्तरायाः।"-त. सू. ४ । ३. “पञ्चवद्वयष्टाविंशतिचतुद्विचत्वारिंशद्विपञ्चभेदा यथाक्रमम् ।" -त. सू. ५ । ४. -यमिति भ. २।
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