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षड्दर्शनसमुच्चये
[ का० ५१. ६२२९विरतिप्रमादपरिहारक्षमादिगुप्तित्रयधर्मानुप्रेक्षाभिनिरोधो-निवारणं स्थगनं संवरः, पर्यायकथनेन व्याख्या । आत्मनः कर्मोपादानहेतुभूतपरिणामाभावः संवर इत्यभिप्रायः।
६२२९. स च देशसर्वभेदाद द्वेधा। तत्र बावरसूक्ष्मयोगनिरोधकाले सर्वसंवरः। शेषकाले चरणप्रतिपत्तेरारभ्य देशसंवरः।
६२३०. अथ बन्धतत्त्वमाह-'बन्धो जीवस्य कर्मणः' इत्यादि । तत्र बन्धनं बन्धःपरस्पराश्लेषो जीवप्रदेशपुद्गलानां क्षीरनीरवत्, अथवा बध्यते येनात्मा पारतन्न्यमापद्यते ज्ञानावरणादिना स बन्धः-पुद्गलपरिणामः।..
६२३१. ननु जीवकर्मणोः संबन्धः कि गोष्ठामाहिलपरिकल्पितकञ्चुकसंयोगकल्प उतान्यः कश्चिदित्याशङ्कयाह 'द्वयोरपि' कर्मवर्गणायोग्यस्कन्धानां जीवस्य चान्योन्यानुगमात्मा-अन्योन्यानुगतिस्वरूपः परस्परानुप्रवेशरूप इत्यर्थः । अयमत्र भावः-वह्नययस्पिण्डसंबन्धवत् क्षीरोदकसंपर्कवद्वा जीवकर्मणोमियोऽनुप्रवेशात्मक एव संबन्धो बन्धो' बोद्धव्यो न पुनः कम्नुकिकञ्चकसंयोगकल्पोज्यो वेति।
_5२३२. अत्राह-कथममूर्तस्यात्मनो हस्ताद्यसंभवे सत्यावानशक्तिविरहात कर्मग्रहणमुच्यत इति चेत् । व्रत, अप्रमादपरिणति, क्षमादिधर्म मन वचन कायके व्यापारोंका निरोध तथा संसारकी अनित्यता आदिका सतत चिन्तवन रूप धर्मानुप्रेक्षा आदि उपायोंसे बन्द कर देना संवर है। आस्रवोंका निरोध, निवारण या स्थगन ही संवर है। तात्पर्य यह कि जिन भावोंसे कर्म आते हैं उनके आत्मामें उत्पन्न न होने देना ही संवर है।
६२२९. सर्वसंवर और देशसंवरके भेदसे संवर दो प्रकारका है। जिस समय मन-वचनकायके स्थूल और सूक्ष्म दोनों व्यापारोंका सर्वथा अभाव हो जाता है उस समय अयोगि-योगरहित गुणस्थानमें सर्वसंवर होता है। इसके पहले मन-वचन-कायकी संयत प्रवृत्ति रूप चारित्रसे देशसंवर होता है।
२३०. जीवके प्रदेश और कर्म पुद्गलोंके दूध-पानीको तरह परस्पर मिलनेको-एक दूसरेसे बंधनेको बन्ध कहते हैं । अथवा जिस ज्ञानावरण आदिके द्वारा आत्मामें परतन्त्रता होती है उस कर्मपुद्गलके परिणमनको बन्ध कहते हैं।
२३१. शंका-क्या जिस प्रकार गोष्ठामाहिलने जीव और कर्मके सम्बन्धको शरीरपर पहनी हई चोली या सांपके शरीरपर लिपटी हई कांचलीकी तरह माना है उसी प्रकारसे कर्मबन्ध होता है अथवा और किसी प्रकारसे ?
समाधान-जीव और कर्म बनने के योग्य पुद्गल स्कन्धोंका परस्पर-अनुप्रवेश, एकका दूसरे में घुस जाना एकमेक हो जाना ही बन्ध है । जिस तरह अग्नि और लोहेंके गोलेका एक क्षेत्रावगाह रूप सम्बन्ध होता है या दूध और पानी मिलकर एकरस हो जाते हैं उसी तरह जीव और कर्म आपस में मिलकर एक जैसे हो जाते हैं, यही उनका परस्परानुप्रवेश बन्ध कहलाता है । शरीर और चोली या सांप और कांचली जैसा साधारण सम्बन्ध नहीं है कि जिसे जोरकी हवा ही फाड़कर अलग फेंक दे। और न इसी तरहका कोई अन्य प्रकारका ही सम्बन्ध माना जा सकता है । आत्मा और कर्मपुद्गल बन्धके समय एक जैसे हो जाते हैं एक दूसरेमें घुल-मिल जाते हैं।
६२३२. शंका-आत्मा तो अमूर्त है । अतः जब उसके हाथ हो नहीं हैं तब वह कर्मोको १. “स गुप्तिसमितिधर्मानुप्रेक्षापरिषहजयचारित्रैः।" -त. सू. ९।२। २."आस्रवनिरोधः संवरः।" -त. सू. ९।। ३. -भाव इत्यभि-म. २। ४. संबन्धः भ. १, प. १, २। ५. गोष्ठामहिलाख्यो निह्नवः । ६. संबन्धो बोद्ध-म. २।
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