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________________ २७५ -का०५१ ६ २२८] जैनमतम् । बन्धास्रवयोरन्योन्य कार्यकारणभावनियमात। $ २२४. न चैवमितरेतराश्रयदोषः, प्रवाहापेक्षयानादित्वात् । ६२२५. अयं चास्रवः 'पुण्यापुण्यबन्धहेतुतया द्विविधः । द्विविधोऽप्ययं मिथ्यात्वाधुत्तरभेदापेक्षेयोत्कर्षापकर्षभेदापेक्षया वानेकप्रकारः। 5२२६. अस्य च शुभाशुभमनोवाक्कायव्यापाररूपस्यास्त्रवस्य सिद्धिः स्वात्मनि स्वसंवेदनाद्यध्यक्षतः, परस्मिश्च वाक्कायव्यापारस्य कस्यचित्प्रत्यक्षतः, शेषस्य च तत्कार्यप्रभवानुमानत. श्वावसेया, आगमाच्च ॥५०॥ ६२२७. अथ संवरबन्धी विवृणोति । संवरस्तन्निरोधस्तु बन्धो जीवस्य कर्मणः। अन्योन्यानुगमात्मा तु यः संबन्धो द्वयोरपि ॥५१॥ १२२८. व्याख्या-तेषां-मिथ्यात्वाविरतिप्रमादकषाययोगानामास्रवाणां सम्यग्दर्शनहोता है, उसी तरह आस्रव और बन्धमें बीज और अंकुरके समान ही परस्परमें कार्य-कारण भाव मौजूद है। २२४. शंका-यदि आस्रव बन्धसे उत्पन्न होता है तथा बन्ध आस्रवसे तो अन्योन्याश्रय दोष होनेसे एककी भी सिद्धि नहीं हो सकेगी। समाधान-यदि उसी आस्रवको बन्धका हेतु तथा उसी बन्धका ही कार्य मानते तो इतरेतराश्रय होता। परन्तु हम तो आस्रव और बन्धका प्रवाह अनादि मानते हैं। अनादिकालसे पूर्व बन्धसे आस्रव तथा उससे उत्तर बन्ध होता चला आया है। जिस तरह आजका बीज पूर्व वृक्षसे, वह वृक्ष पूर्व बीजसे इस तरह अनादि परम्परा चलती है उसी तरह आजका आस्रव पूर्वबन्धसे, वह पूर्व आस्रवसे, वह तत्पूर्व बन्धसे इस तरह आस्रव और बन्धकी अनादिकालसे अविच्छिन्न धारा चली आती है। २२५. यह आस्रव पुण्य बन्धमें कारण होनेसे पुण्यास्रव तथा पाप बन्धो कारण होनेसे पापास्रव कहलाता है । ये दोनों ही पुण्यास्रव और पापास्रव मिथ्यात्व आदिकी तीव्रता, मन्दता आदिके भेदोंसे अनेक प्रकारके होते हैं। इस तरह शुभ और अशुभ रूपसे होनेवाले मन-वचनकायकी प्रवृत्ति ही आस्रव है। २२६. यह आस्रव अपनी आत्मामें तो स्वसंवेदन प्रत्यक्षसे ही अनुभवमें आता है। दूसरेकी आत्माकी कुछ शारीरिक-वाचनिक प्रवृत्तियां तो प्रत्यक्षसे ही जानी जाती हैं तथा कुछ मानसिक प्रवृत्तियाँ तदनुकूल कार्योंसे अनुमित होती हैं। मनके भाव भी चेहरेकी प्रसन्नता आदिसे जान लिये जाते हैं । आगमसे भी दूसरेकी आत्माको तथा अपनी आत्माकी प्रवृत्तियोंका यथावत् परिज्ञान होता है । अतः आगम भी आस्रवतत्त्वकी सत्ता सिद्ध करता है ।।५।। ६२२७. अब संवर और बन्धका व्याख्यान करते हैं आस्रवके निरोधको संवर कहते हैं। जीव और कर्मका एकमेक होकर मिल जाना, दोनोंका परस्पर-अनुप्रवेश रूप सम्बन्ध बन्ध कहलाता है ॥५१॥ 5२२८. मिथ्यात्व अविरति प्रमाद कषाय और योगरूप कर्मके आनेके द्वारोंको सम्यग्दर्शन १. -पुण्यहेतु-भ. २। २. -क्षया चाने-म. २ ।। ३. वा भ. २। ४. -ति कषा-भ. १, २, प. १,२, क. । ५. "मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकषाययोगाः बन्धहेतवः।" -त. सू. ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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