________________
२७४
षड्दर्शनसमुच्चये
[का० ५०. ६ २२१तु पापकार्यत्वमिति कार्यानुमानम् । सर्वज्ञवचनप्रामाण्याद्वा पुण्यपापयोरुभयोः सत्ता प्रतिपत्तव्या। विशेषार्थिना त विशेषावश्यकटीकावलोकनीयेति।
६२२१. अथास्रवमाह । 'मिथ्यात्वाद्यास्तु हेतवः' इत्यादि । असद्देवगुरुधर्मेषु सद्देवादिबुद्धिमिथ्यात्वम् । हिंसाद्यनिवृत्तिरविरतिः। प्रमादो मद्यविषयादिः । कषायाः क्रोधावयः। योगा मनोवाक्कायव्यापाराः। अत्रैवमक्षरघटना। मिथ्यात्वाविरत्याविकाः पुनर्बन्धस्य ज्ञानावरणीयाविकर्मबन्धस्य ये हेतवः, स आस्रवो जिनशासने विज्ञेयः। आस्रवति कर्म एभ्यः स आस्रवः। ततो मिथ्यात्वादिविषयों मनोवाक्कायव्यापारा एव शुभाशुभकर्मबन्धहेतुत्वादास्रव इत्यर्थः ।
६ २२२. अथ बन्धाभावे कथमावस्योपपत्तिः, आस्रवात्, प्राग्बन्धसद्धावे वा न तस्य बन्ध. हेतुता, प्रागपि बन्धस्य सद्भावात् । न हि यद्यद्धेतुकं तत्तदभावेऽपि भवति, अतिप्रसङ्गात् ।
६२२३. असदेतत्, यत आस्रवस्य पूर्वबन्धापेक्षया कार्यत्वमिष्यते; उत्तरबन्धापेक्षया च कारणत्वम् । एवं बन्धस्यापि पूर्वोत्तरानवापेक्षया कार्यत्वं कारणत्वं च ज्ञातव्यं, बीजाङ्करयोरिव सुहावना निरोग शरीर पुण्यके उदयसे मिलता है तथा भद्दा, काना, लूला, लँगड़ा, कुरूप शरीर पापका कार्य है । इस तरह इन शरीरोंकी विचित्रता रूपी कार्यसे भी पुण्य और पापका अनुमान होता है। सर्वज्ञके द्वारा प्रणीत आगममें इनका प्रतिपादन होनेसे आगमके द्वारा भी इनकी सत्ता निर्विवाद रूपसे सिद्ध हो जाती है। इन पुण्य और पाप सम्बन्धी विशेष चर्चा विशेषावश्यक भाष्यकी टीकामें देखनी चाहिए।
६२२१. मिथ्यात्व आदि बन्धके कारणोंको आस्रव कहते हैं। कुदेव, कुगुरु तथा कुधर्मको सच्चा देव, सच्चा गरु तथा सच्चा धर्म मानना मिथ्यात्व है। असतमें सत बद्धि करना ही मिथ्यात्व है। हिंसा आदि पाप कार्योंसे विरक्त न होना उनमें लगे रहना अविरति है। शराब पीना और विषय आदि सेवन करनेसे जो अच्छे कार्यों में अनादरका भाव होता है वह प्रमाद है। क्रोध-मानमाया और लोभ, जो आत्माके शान्त स्वरूपको कस देते हैं-उस स्वरूपको बिगाड़ देते हैं वे कषाय हैं। मन-वचन और शरीरके व्यापारको योग कहते हैं। मिथ्यात्व और अविरति आदिको जिनसे ज्ञानावरण आदि कर्मोंका बन्ध होता है, जिनशासनमें आस्रव कहते हैं। जिन भावों या क्रियाओंसे कर्म आते हैं ( आ-समन्तात् चारों तरफसे स्रवति-कर्मोंका टपकना) उन्हें आस्रव कहते हैं। तात्पर्य यह है कि-मिथ्यात्व अविरति आदि रूपमें जो मन-वचन-कायको प्रवृत्ति होती है, और जिससे शुभ और अशुभ कर्म आते हैं उसे आस्रव कहते हैं ।
६२२२. शंका-जबतक आत्माके साथ कर्मोंका बन्ध नहीं होगा तबतक उसमें मिथ्यात्व आदि बुरे भाव ही उत्पन्न नहीं होंगे। और जब बुरे भाव और बुरी क्रियाएँ ही नहीं हैं तब कर्मोंका आस्रव-आना किस जरियेसे होगा? यदि आत्मामें पहलेसे ही कर्म बन्ध मौजूद है तब आस्रव निरर्थक ही है वह बन्धमें कारण नहीं हो सकेगा; क्योंकि बन्ध तो आस्रवसे पहले ही आत्मामें मौजूद है । जो जिसके अभावमें हो जाती है उसमें उस वस्तुको कारण नहीं कह सकते । जब आस्रव था ही नहीं और बन्ध पहले ही हो चुका तब आस्रवको बन्धके प्रति कारण कैसे कहा जा सकता है ? जब आस्रव है ही नहीं तब बन्ध किसका? जो चीज़ आयी ही नहीं उसका सम्बन्ध कहना तो निरी मूर्खता ही है।
६२२३. समाधान-आज जिन भावोंसे कर्मोंका आस्रव हो रहा है वे भाव पहले बंधे हुए कर्मोंके उदयसे हुए हैं, अतः आजका आस्रव पूर्वबन्धका तो कार्य है तथा आगे होनेवाले कर्मबन्धका कारण है। इसी तरह बन्ध पूर्व आस्रवका कार्य तथा उत्तर आस्रवमें कारण होता है । जिस प्रकार जिस बोजको आज बोते हैं वह पहलेके वृक्षका तो कार्य है और आगे उगनेवाले अंकुरका कारण
१. स्या हे-म. २। २. विषयमनोवाक्कायव्यापार एव भ. २ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org