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________________ -का० ५०. ६२२०] जैनमतम् । २७३ नन्तरमेव सर्वेऽव्ययत्नेन मुक्ति गच्छेयुः। ततः प्रायः शून्य एव संसारः स्यात् ततश्च संसारे दुःखी कोऽपि नोपलभ्येत । दानाविशुभक्रियानुष्ठातारः शुभतत्फलविपाकानुभवितार एवं केवलाः सर्वत्रोपलभ्येरन् । दुःखिनेश्चात्र बहवो दृश्यन्ते सुखिनस्त्वल्पा एव तेन ज्ञायते कृषिवाणियहिंसादिक्रियादिबन्धनोऽदृष्टपापरूपफलविपाको दुःखिना, इतरेषां तु दानादिक्रियाहेतुकोऽदृष्टधर्मरूपफलविपाक इति। ६२६९. व्यत्ययः कस्मान्न भवतीति चेत् । उच्यते, अशुभक्रियारम्भिणामेव च बहुत्वात् शुभक्रियानुष्ठातृणामेव च स्वल्पत्वादिति कारणानुमानम् । ६२२०. अथ कार्यानुमानम्-जीवानामात्मत्वावशेषेऽपि नरपश्वादिषु देहादिवैचित्र्यस्य कारणमस्ति, कार्यत्वात्, यथा घटस्य मृद्दण्डचक्रचीवरादिसामग्रीकलितः कुलालः। न च दृष्ट एव माता-पित्रादिकस्तस्य हेतुरिति वक्तव्यं,दष्टहेतुसाम्येऽपि,सुरूपेतरादिभावेन देहादीनां वैचित्र्यदर्शनात्, तस्य चादृष्टशुभाशुभकर्माख्यहेतुमन्तरेणाभावात् । अत एव शुभदेहावीनां पुण्यकार्यत्वं, इतरेषां तो आटेमें नमकके बराबर गिने-चुने ही लोग होंगे। इसलिए यह स्पष्ट ज्ञात हो जाता है कि इन दुःखी जीवोंने पूर्वजन्ममें कुछ ऐसे हिंसा आदि बुरे कार्य किये थे जिसके पापका फल आज इन्हें भुगतना पड़ रहा है और ये ही महानुभाव संसारमें अपना बहुमत सदा बनाये रखते हैं क्योंकि पापको ओर ही प्रायः अधिक प्रवृत्ति देखी जाती है। इससे यह भी मालूम हो जाता है कि खेती, व्यापार, हिंसा आदिसे पापका बन्ध होता है और उसके फलस्वरूप दुःख मिलता है तथा दान आदि शुभ कामोंसे पुण्यका बन्ध होकर उससे सुख मिलता है । ये संसारके थोड़े सुखी और अधिक दुःखी व्यक्ति ही पुण्य और पापकी सत्ता तथा उनकी न्यूनाधिकताके जीते-जागते प्रमाण हैं । २१९. शंका-दानादि अच्छे कामोंका बुरा फल और हिंसा आदि बुरे कार्योंका अच्छा फल क्यों नहीं मिलता? समाधान-यदि दान आदि अच्छे कार्योंका बुरा तथा हिंसा आदि बुरे कार्योंका अच्छा फल होता तो आज संसारमें सुखी ही सुखी प्राणी दिखाई देते क्योंकि हिंसा आदि बुरे कार्य करनेवाले ही संसारमें अधिक पाये जाते हैं तथा दान आदि शुभ कार्य करनेवाले तो बिरले ही हैं । पर संसारकी पापमय प्रवृत्तिको देखते हुए सुखियोंका कम और दुखियोंका अधिक पाया जाना ही इस बातका ज्वलन्त प्रमाण है कि अच्छे कामोंका अच्छा तथा बुरे कार्योंका बुरा फल होता है । 'जैसी करनी तैसी भरनी' यह बात तो मूर्ख ग्वाले भी जानते हैं ।। ६२२०. अब कार्यानुमान बताया जाता है यद्यपि सभी जीवोंमें आत्मा तो एक-सी है परन्तु कोई नरक में पैदा होता है, किसीको पशुकी देह मिलती है तो कोई मनुष्यका चोला धारण करता है उनमें भी कोई सुन्दर सुहावना लगता है तो कोई भद्दा बेडोल-कुरूप होता है। ये सब विचित्र शरीर किसी न किसी कारणसे ही मिलते हैं क्योंकि ये कार्य हैं। जिस तरह अनेक छोटेबड़े-चपटे आदि घड़ोंमें मिट्टी-चाक-डण्डा तथा कुम्हार कारण होते हैं उसी तरह इन विचित्रविचित्र देहोंकी प्राप्तिमें कोई न कोई छिपा हुआ अदृष्ट कारण अवश्य है। प्रत्यक्ष मौजूद मातापिताको तो इस विचित्रतामें कारण नहीं कहा जा सकता, क्योंकि सुन्दर मां-बापके कुरूप लड़के, कुरूप मां-बापके सुन्दर लड़के, तथा उन्हीं मां-बापके कभी सुन्दर और कभी कुरूप बाल-बच्चे पैदा होते हैं। अतः मां-बाप आदि दृष्ट कारणोंकी समानता होनेपर भी जिस छिपे हुए अदृष्टकारणसे अच्छे और बुरे शरीर प्राप्त होते हैं वही तो पुण्य-पाप हैं। इसलिए अच्छा-स्वस्थ सुडौल १. दुःखितश्चात्र-म. १, प. १, २ । दुःखिताश्चात्र भ. १ । २.-ल्पाः तेन आ., क., म.., प. १,२। ३.-मेव बहु-म. २। ४. -मानं जीवाना-आ.। ५. मृत्पिडचक्र-म. ३१ ६. मातापितादि-आ., क.। ७.-षां पाप-भ.३। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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