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________________ २७२ षड्दर्शनसमुच्चये [ का० ५०. ६२१८ - २१८. ननु यथा कृष्यादिक्रिया दृष्टशाल्यादिफलमात्रेणैवावसितप्रयोजना भवन्ति, तथा दानादिकाः पशुहिंसादिकाश्च सर्वा अपि क्रियाः श्लाघादिना मांसभक्षणादिना च दृष्टफलमात्रेणैवावसितप्रयोजना भवन्तु, किमदृष्टधर्माधर्मफलकल्पनेन । लोको हि प्रायेण सर्वोऽपि दृष्टमात्रफलास्वेव कृषिवाणिज्यहिंसादिक्रियासू प्रवर्तते, अदृष्टफलास पुननादिक्रियास्वत्यल्प एव लोकः प्रवर्तते न बहुः। ततश्च कृषिहिंसाधशुभक्रियाणामदृष्टफलाभावाद्दानादिशुभक्रियाणामप्यदृष्टफलाभावो भविष्यतीति चेत् । न, यत एव कृष्याघशुभक्रियासु दृष्टफलासु बहवः प्रवर्तन्ते, अदृष्टफलासु पुनानादिशुभक्रियास्वत्यल्प एव लोकः प्रवर्तते, तत एव कृषिहिंसादिका वृष्टफलाः क्रिया अदृष्टपापरूपफला अपि प्रतिपत्तव्याः, अनन्तसंसारिजीवसत्तान्यथानुपपत्तेः। ते हि कृषिहिंसादिक्रियानिमित्तमनभिलषितमप्यदृष्टं पापलक्षणं फलं बद्ध्वा अनन्तसंसारं परिभ्रमन्तोऽनन्ता इह तिष्ठन्ति । यदि हि कृषिहिंसाद्यशुभक्रियाणामदृष्टं पापरूपं फलं नाभ्युपगम्यते तदा तत्कर्तारोऽदृष्टफलाभावान्मरणा ६२१८. शंका-जिस तरह खेती, व्यापार आदिका फल यहींका यहीं धान या नफा आदि रूपसे मिल जाता है, प्रत्यक्ष ही जैसा बोते हैं वैसा ही काट लेते हैं, इनका कोई अदृष्ट-नहीं दिखाई देनेवाला परोक्ष फल नहीं होता, उसी तरह दान देनेका भी फल प्रशंसा, अखबारों में नाम छपना आदिके रूपमें तथा हिंसाका फल मांसभक्षण और उससे होनेवाली तृप्तिके रूपमें यहींका यहीं 'इस हाथ दे उस हाथ ले' के अनुसार मिल ही जाता है और यह उचित भी है, तब इनका एक अदृष्ट-परोक्ष आंखोंसे नहीं दिखाई देनेवाला पुण्य-पाप रूप फल क्यों माना जाय ? संसारको प्रवृत्ति भी साक्षात् तुरत फल देनेवाली क्रियाओंमें ही अधिक देखी जाती है। खेती, व्यापार या शिकार खलना आदिमें लोग इसीलिए अधिक प्रवृत्त होते हैं कि इनका फल लगे हाथ तुरन्त मिल जाता है । यही कारण है कि परलोकमें अदृष्ट फल देनेवाली दानादि क्रियाओंमें लोगोंकी प्रवृत्ति कम होती है। यहां तो नगदीकी दूकानदारो है उधारका धन्धा करना तो अपने हाथका पिल्ला छोड़कर फिर उसे बुलानेके लिए कूर-कूर करनेके समान हो है। अतः जब खेती, हिंसा आदि अशुभ क्रियाओंका को अदष्ट पाप रूप फल नहीं है तब दान आदि शभ क्रियाओंका भी अदष्ट-पुण्य रूप फल क्यों माना जाय ? यहीं जो कीर्ति आदि मिल जाती है वही दान आदिका साक्षात् फल है। समाधान आपके कहनेका तात्पर्य यही हुआ कि-'जिनका साक्षात् लगे हाथ फल मिल जाता है उन खेती हिंसा आदि अशुभ क्रियाओंमें लोगोंकी प्रवृत्ति अधिक होती है तथा दान आदि शुभ क्रियाओंमें कम' आपके इसी कथनसे तो यह बात सिद्ध हो जाती है कि-हिंसा आदि अशुभ क्रियाएं पाप रूप अदृष्ट फलको देती हैं, नहीं तो इस संसारमें इतने पापी जीव कहांसे आते? यह संसार चलता ही कैसे ? इन्हींकी कृपा है कि आज संसारकी स्थिति बनी है। ये हिंसक लोग अपने सुखोपभोगके लिए दूसरोंका घात आदि करके ऐसे तीव्र पापका अनचाहा बन्ध करते हैं जिससे अनन्तकाय तक इसी संसारमें दुःख उठाते हए नाना योनियों में परिभ्रमण करते फिरते हैं। यदि हिंसा आदि बुरे कार्योंका पाप नामका अदृष्ट-परोक्ष फल न होता; तो ये हिंसक या बुरे कार्य करनेवाले इस लोकमें थोड़ा-बहुत मजामौज करके परलोकमें पापके न होनेसे अनायास ही मुक्तिको चले जायेंगे; तब यह संसार तो शून्य ही हो जायेगा । संसारमें कोई दुःखी ढूंढ़नेपर भी न मिलेगा; क्योंकि अशुभ क्रियाओंका पाप नामका फल तो होगा ही नहीं जिससे किसीको दुःख हो। फिर तो संसारमें दान आदि अच्छे कार्य करनेवाले कुछ इने-गिने लोग ही सदा सुख भोगते हुए मिलेंगे । परन्तु आप हिसाब लगाकर देखिए तो संसारमें दुःखी जीव ही बहुत अधिक हैं सुखी १. -क्रियासु स्वल्प्य एव म. २। २. -क्रियासु अल्पा एव लोकाः प्रवर्तन्ते तत् प.१, २। -क्रियासु स्वल्पा एव प्रवर्तन्ते भ.। ३. तहि म.२।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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