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- का. ५०. ६ २१७ ]
जैनमतम् ।
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२१६. तवयुक्तं, व्यभिचारात्, तथाहि — तुल्यान्नखगादिसाधनयोरपि द्वयोः पुरुषयोः सुखदुःखलक्षणे फले महान् भेदो दृश्यते । तुल्येऽपि ह्यन्नादिके भुक्ते कस्याप्याह्लादो दृश्यते, अपरस्य तु रोगादयुत्पत्तिः, अयं च फलभेदोऽवश्यमेव सकारणः, निःकारणत्वे नित्यं सत्त्वासत्त्वप्रसङ्गात् । यच्च तत्कारणं तददृष्टं पुण्यपापरूपं कर्मेति । तदुक्तम्
"जो तुल्लसाहणाणं फले विसेसो न सो विणा हे । कज्जत्तणओ गोयम घडो व्व हेऊ अ सो कम्मं ॥ १ ॥ इति ।
२१७. अथवा कारणानुमानात्कार्यानुमानाच्चैवं पुण्यपापे गम्येते । तत्र कारणानुमानमिदम् - दानादिशुभक्रियाणां हिंसाद्यशुभक्रियाणां चास्ति फलभूतं कार्यं, कारणत्वात्, कृष्यादिक्रियावत् । यच्चासां फलभूतं कार्यं तत्पुण्यं पापं चावगन्तव्यं यथा कृष्या दिक्रियाणां शालियवगोधू मादिकम् ।
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$ २१६ समाधान - स्त्री आदि पदार्थोंके सुख-दुःख उत्पन्न करनेमें व्यभिचार देखा जाता है । देखो, दो व्यक्ति हैं, जिनके पास बराबर-बराबर अन्न, माला, चन्दन, स्त्री आदि सुख के साधन मोजूद हैं, तो क्या आप समझते हैं कि दोनों को एक सरीखा सुख हो रहा है। सामग्री एक बराबर होने पर भी उनके सुख-दुःखमें मुहुर कौड़ी जितना अन्तर पाया जाता है। वही मिष्टान्न एक स्वस्थ व्यक्तिको आनन्द तथा पुष्टि देता है और वही दूसरे दुर्बल व्यक्तिको बदहजमी आदि रोगोंका कारण हो जाता है । वही वस्त्र वही माला तथा वही सुख भोगकी सामग्री कामीके लिए रागका कारण होती है तथा वही सामग्री मुमुक्षुको बन्धन रूप मालूम होती है । इस तरह तुल्य सामग्री होनेपर भी सुख-दुःख रूपमें यह जमीन और आसमान जितना अन्तर अवश्य ही किसी अन्य अदृष्ट कारणसे होता है । यदि यह निष्कारण हो तब या तो यह सदा होगा या बिलकुल ही नहीं होगा; परन्तु यह भेद कभी-कभी देखा जाता है अतः यह सकारण है निष्कारण नहीं । इस महान् भेदका कारण है अदृष्ट - पुण्य-पापरूपी कर्म । वही सामग्री पुण्यशालीको सुख देती है जब कि उसी सामग्री से पापी दुःख भोगता है । वही केशरिया दूध एक व्यक्तिको आनन्द देता है जब कि उसीके पीने से दूसरा बीमार होकर यमराजके घरका मेहमान तक भी बन जाता है। कहा भी है- " तुल्य सामग्रीवाले पुरुषोंके सुख-दुःख में जो विशेषता देखी जातो है, अर्थात् वही सामग्री एकको अधिक सुख देती है और दूसरेको कम सुख या दुःख देती है यह विचित्रता बिना कारणके नहीं हो सकती, क्योंकि यह कार्य है, की गयी है, कभी-कभी होती है । हे गौतम, जिस तरह घड़ा बिना कारण उत्पन्न नहीं होता उसी तरह यह समान सामग्रीवालोंके सुख-दुःखकी विचित्रता भी बिना कारण नहीं हो सकती । इस विचित्रताका कारण है कर्म ।" यदि ये दृश्य पदार्थ ही स्वयं सुखदुःख के कारण होते हों तो फिर एक ही वस्तु एकको सुख तथा दूसरेको दुःख क्यों देतो है ? इस तरह इस संसार की विचित्रता स्वयं ही अपने कारण पुण्य और पापको सिद्ध करती है ।
$ २१७. अब कारण तथा कार्यं हेतुसे पुण्य और पापकी सिद्धि करते हैं । दान देना, अहिंसा भाव रखना आदि शुभ क्रियाओंका तथा हिंसा आदि अशुभ क्रियाओंका फल अवश्य देता है क्योंकि ये कारण हैं । जिस प्रकार खेती आदि करनेका फल धान्य आदि मिलता है उसी तरह अहिंसा, दान और हिंसा आदि क्रियाओंका भी कुछ न कुछ अच्छा और बुरा फल मिलना ही चाहिए | इनका जो कुछ अच्छा और बुरा फल होता है वही पुण्य और पाप है । इनके सिवाय कोई दूसरा फल हो ही नहीं सकता ।
१. - धनयोरपि पुरु- म. २ । २. ते परस्य भ. १, २, प. १, २ । ३. यस्तुल्यसाधनानां फले विशेषः न सो विना हेतुम् । कार्यत्वात् गौतम घट इव हेतु च तत् कर्म ॥
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