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षड्दर्शनसमुच्चये
[ का० १.६५शब्द-ब्रह्म-ज्ञानाद्वैतवादिभिश्च शब्द-ब्रह्म-ज्ञानाद्वैतानि चेत्यादयो ये ये वस्त्वंशाः परैरङ्गी नियन्ते, ते सर्वेऽपि सापेक्षाः सन्तः परमार्थसत्यतां प्रतिपद्यन्ते निरपेक्षास्त्वन्योन्येन निरस्यमाना नभोनलिनायन्त इत्यलं विस्तरेण । स्याद्वादस्य देशकः सम्यग्रवक्ता स्याद्वाददेशकस्तम् । अनेन च वचनातिशयमचकथत् ।
$ ५. तदेवं चत्वारोऽत्रातिशयाः' शास्त्रकृता साक्षादाचचक्षिरे । तेषां हेतु-हेतुमद्भाव एवं
भिन्न-भिन्न वादी हैं। शब्दाद्वैतवादी जगत्को शब्दमय मानता है तो ब्रह्माद्वैतवादी उसे ब्रह्ममय एवं विज्ञानाद्वैतवादी उसे क्षणिक ज्ञानक्षणरूप स्वीकार करते हैं। इस तरह भिन्न-भिन्न वादियों द्वारा जिन-जिन वस्त्वंशोंका निरूपण किया जाता है, वे ही वस्त्वंश जब वस्तुस्थितिके आधारसे परस्पर सापेक्ष रूपसे समन्वित हो जाते हैं, तो वे ही परमसत्यरूप होकर अपने प्रतिपादक दर्शनको सद्दर्शन बना देते हैं। पर यदि इन वस्त्वंशोंका परस्पर समन्वय न किया जाये और उन्हें निरपेक्ष छोड़ दिया जाये तो ये वस्त्वंश परस्पर विरोधी होकर एक दूसरेका प्रतिक्षेप करके आकाशके फूल की तरह असद्रूप हो जाते हैं। तात्पर्यार्थ यह है कि वस्तु परस्परसापेक्ष गुण-पर्यायरूप वस्त्वंशोंका एक आमेडित अखण्ड पिण्ड है। यदि उसके प्रत्येक अंश एक-दूसरेकी अपेक्षा रखना छोड़ दें तो वे सबके सब परस्परविरोधी होकर आकाशके फूलकी तरह असत् ही हो जायेंगे। जब कोई एक दर्शन अपनेद्वारा कहे गये वस्तुके अंशको ही पूर्ण वस्तु माननेका आग्रह करता है तब वह सहज ही दूसरे दर्शनका-जो पहले दर्शनकी तरह अपने द्वारा माने गये वस्त्वंशमें वस्तुकी पूर्णताका अभिमान कर रहा है, विरोधी हो जाता है। पर यदि हर एक दर्शन यह समझने लग जाये कि-'मेरे द्वारा कहा गया वस्तुका स्वरूप इस अपेक्षासे है, और दूसरे दशनके द्वारा कहा जानेवाला वस्तुका स्वरूप इस अपेक्षासे है' और इस तरह दूसरे दर्शनोंके सत्यांशका आदर करने लग जाये तो परस्पर सापेक्षताके कारण समन्वय हो जानेसे उनका वह विरोध मैत्रीका रूप धारण कर लेगा। वस्तुके अनेकान्त स्वरूप तक पहुँचनेका यही एकमात्र प्रशस्त मार्ग है। इस तरह अपने द्वारा माने गये एक-एक वस्त्वंशमें पूर्णताके मिथ्या अभिमानके कारण सभी दर्शन एक दूसरेका खण्डन करते हैं और परस्पर-विरोधी भासित होते हैं। पर जब उनके द्वारा माने गये वस्त्वंशोंकी वस्तुमें यथार्थ स्थिति होनेके कारण परस्पर सापेक्ष भावसे समन्वय किया जाता है तब वे ही परस्पर सापेक्ष वस्त्वंश समीचीन बन जाते हैं और ऐसे परस्पर सापेक्ष वस्त्वंशोंके प्रतिपादक दर्शन अनायास ही स्याद्वादके समर्थक हो जाते हैं। अतः अनेक धर्मोंका परस्पर सापेक्ष कथन करनेवाला स्याद्वाद ही सद्वाद है। स्याद्वादका देशक अर्थात् सम्यग्रवक्ता स्याद्वाददेशक है। इससे वचनातिशयका कथन हुआ।
६५. इस तरह शास्त्रकारने श्लोकमें आये हुए 'सद्दर्शन, जिन और स्याद्वाददेशक' इन विशेषणोंसे भगवान्। ज्ञानातिशय आदि चारों अतिशयोंका साक्षात् प्रतिपादन किया है। इन
१. तुलना-"मलातिशयाश्चत्वारः । तद्यथा-अपायापगमातिशयः, ज्ञानातिशयः, पूजातिशयः, वागतिशयश्च ।"-अनेकान्तज. स्व. पृ.। "यथाक्रमं भगवतो मलातिशयाश्चत्वारः स्मृतिमुकुरभूमिकामानीयन्ते । तद्यथा-अपायापगमातिशयो "एतेषां चातिशयानामित्थमपन्यासे तथोत्पत्तिरेव निमित्तम्; तथाहि-नाविजितरागद्वेषो विश्ववस्तुज्ञाता भवति । न चाविश्ववस्तुज्ञः शक्रपूज्यः संपद्यते। न च शक्रपूजाविरहे भगवांस्तथा गिरः प्रयुङ्क्त इति ।"-स्या. र. पृ.४। स्या. म. का.। काललो. श्लो. ९९७ ।
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