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- का० १.१४ ]
मङ्गलम् ।
सद्दर्शनस्तम् । अनेन च तदीयदर्शनस्य त्रिभुवनपूज्यतामभिदधानः श्रीवर्धमानस्य त्रिभुवनविभोः सुतरां त्रिभुवनपूज्यतां व्यनक्तीति पूजातिशयं प्राचीकटत् ।
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$ ३. तथा जयति रागद्वेषादिशत्रूनिति 'जिनस्तम्, अनेनापायापगमातिशयमुदबीभवत् ।
४. तथा स्यात् –— कथंचित् सर्वदर्शनसंमतसद्भूतवस्त्वंशानां मिथः सापेक्षतया वदनं स्याद्वाद : े, सदसन्नित्यानित्यसामान्यविशेषाभिलाप्यानभिलाप्यो भयात्मानेकान्त इत्यर्थः । ननु कथं सर्वदर्शनानां परस्परविरुद्ध भाषिणामभीष्टा वस्त्वंशाः के सद्भूताः संभवेयुः येषां मिथः सापेक्षतया स्याद्वादः सत्प्रवादः स्यादिति चेत्, उच्यते यद्यपि दर्शनानि निजनिजंमतभेदेन परस्परं विरोध भजन्ते तथापि तैरुच्यमानाः सन्ति तेऽपि वस्त्वंशा ये मिथः सापेक्षाः सन्तः समीचीनतामञ्चन्ति । तथा हि-सौगतैरनित्यत्वम्, सांख्यैनित्यत्वम्, नैयायिकै वैशेषिकैश्च परस्परविविक्ते नित्यानित्यत्वे, सदसत्त्वे, सामान्यविशेषौ च, मीमांसकैः स्याच्छन्दवजं भिन्नाभिन्ने, नित्यानित्यत्वे, सदसवंशौ, सामान्यविशेषौ शब्दस्य नित्यत्वं च, कैश्चित् कालस्वभावनियतिकर्मपुरुषादीनि ' जगत्कारणानि,
जैन दर्शनको जग-पूज्यता के द्वारा उसके प्ररूपक वर्धमान भगवान्को त्रिभुवन पूज्यताका स्पष्ट सूचन किया गया है । इससे भगवान्का पूजातिशय प्रकट हो जाता है ।
६३. जिन - जो राग-द्वेष आदि समस्त अन्तःशत्रुओं को जीत लेता है वह 'जिन' है । इस विशेषणसे वीर भगवान्का अपायापगम अपाय = दोषका, अपगम = निरसन नामक अतिशय प्रकट होता है ।
४. स्याद्वाददेशक - स्यात् - कथंचित् अर्थात् सभी दर्शनों द्वारा माने गये वस्तुके सद्भूत अंशोंका परस्पर सापेक्ष कथन करना स्याद्वाद है । अर्थात् सत्-असत् उभयरूप, नित्य- अनित्य उभयरूप, सामान्य- विशेष उभयरूप, वाच्य अवाच्य उभयरूप अनेकान्त है । प्रश्न -- जब सभी दर्शन परस्पर विरुद्ध कथन करनेवाले हैं तब उन परस्परविरोधी दर्शनोंके द्वारा कहे गये वस्तुके सद्भूत अंश कौन से हैं, जिनका परस्पर सापेक्ष रूपसे समन्वयात्मक कथन करनेवाला स्याद्वाद सत्प्रवाद अर्थात् सच्चा मत समझा जाये ? उत्तर - यद्यपि सभी दर्शन अपने आपसी मतभेदके कारण परस्पर विरोधी हो रहे हैं पर एक बात तो सुनिश्चित है कि उन दर्शनोंके द्वारा अपने-अपने दृष्टिकोणों के अनुसार कहे जानेवाले वस्तुके ऐसे भी अंश हैं जो परस्पर सापेक्ष बनकर समीचीन बन जाते हैं। अर्थात् अविरोधी और सच्चे बन जाते हैं और ऐसे समन्वित वस्त्वंशोंका प्रतिपादक स्याद्वाद सद्वाद हो जाता है । उदाहरणार्थं - बौद्ध वस्तुको अनित्य तथा सांख्य उसे नित्य मानते हैं । नैयायिक और वैशेषिक नित्य - अनित्य, भाव- अभाव और सामान्य विशेषको परस्पर भिन्न स्वीकार करते हैं । वे forest नित्य ही तथा अनित्यको अनित्य ही मानते हैं । उनके मत में सामान्य और विशेष जुदे- जुदे हैं। भावसे अभाव भी भिन्न है । मीमांसक वस्तुको भिन्नाभिन्नरूप, नित्यानित्यरूप, सद्-असद्रूप और सामान्यविशेषरूप मानकर भी उसमें स्यात् शब्दका प्रयोग नहीं करते और शब्दको सर्वथा नित्य ही मानते हैं । काल, स्वभाव, नियति, कर्म या पुरुष आदिको जगत्का कारण माननेवाले
१. पालिभाषायां तु जिनावेर्धातोः जिनातीति जिनः इति सिद्ध्यति । २. तुलना - " स्याद्वादः सर्वर्थ कान्तत्यागात् किंवृत्तचिद्विषिः । सप्तभङ्गनयापेक्षो हेयादेयविशेषकः ॥ " आप्तमी, श्लोक १०४ । “सच तिङन्तप्रतिरूपको निपातः, तस्य अनेकान्तविधिविचारादिषु बहुष्वर्थेषु संभवत्सु इह विवक्षावशात् अनेकान्तार्थो गृह्यते ।”—त. वा. पृ. १४१ । त. इलो. पृ. १३६ । न्यायकुमु. पृ. ३ । रन कराव. पू. १५ । हैम. बृह. पू. १ । स्या. म. का. ५। ३. "सदसन्नित्यानित्यादिप्रतिक्षेपलक्षणोऽनेकान्तः " अष्टश., अष्टल, पृ. २४६ । ४ - विविक्तनि-प १, २, भ. १ । ५. -दीति क. ।
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