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षड्दर्शनसमुच्चये
[का० १.६२शासनप्रभावनाप्रभाताविर्भावनभास्करो याकिनीमहत्तरावचनानवबोधलब्धबोधिबन्धुरो भगवान् श्रीहरिभद्रसूरिः षड्दर्शनीवाच्यस्वरूपं जिज्ञासूनां तत्तदीयग्रन्थविस्तरावधारणशक्तिविकलानां सकलानां विनेयानामनुग्रहविधित्सया स्वल्पग्रन्थं महाथ सद्भूतनामान्वयं षड्दर्शनसमुच्चयं शास्त्रं प्रारभमाणः शास्त्रारम्भे मङ्गलाभिधेययोः साक्षादभिधानाय संबन्धप्रयोजनयोश्च संसूचनाय प्रथम श्लोकमेनमाह
सद्दर्शनं जिनं नत्वा वीरं स्याद्वाददेशकम् ।
सर्वदर्शनवाच्योऽर्थः संक्षेपेण निगद्यते ॥१॥ ६२. सत् शश्वविद्यमानं छद्मस्थिकज्ञानापेक्षया प्रशस्तं वा दर्शनम् उपलब्धिर्ज्ञानं केवलाख्यं यस्य स सद्दर्शनः। अथवा सत् प्रशस्तं दर्शनं केवलदर्शनं तदव्यभिचारित्वात्केवलज्ञानं च यस्य स सद्दर्शनः सर्वज्ञः सर्वदर्शी चेत्यर्थः, तम् । अनेन विशेषणेन श्रीवर्धमानस्य भगवतो ज्ञानातिशयमाविरबीभवत् । अथवा सद् अचितं सकलनरासुरामरेन्द्रादिभिरभ्यचितं दर्शनं जैनदर्शनं यस्य स सौ शास्त्रोंकी रचना करके जगत्के प्राणियोंका महान् उपकार किया है, जो जिन-शासनको प्रभावनारूपी प्रभातको प्रकट करनेवाले तेजस्वी सूर्य हैं, 'याकिनी महत्तराके वचनोंको नहीं समझ सकनेके निमित्तसे जिन्हें सम्यक्त्वकी प्राप्ति हुई थी, ऐसे श्री हरिभद्रसूरि, जिनमें षड्दर्शनके बड़े-बड़े ग्रन्थोंके समझनेकी तो शक्ति नहीं है पर षड्दर्शनके स्वरूपको समझना अवश्य चाहते हैं, उन सभी जिज्ञासु विनेयोंके अनुग्रहकी इच्छासे इस यथार्थ नामवाले, बहुअर्थभित षड्दर्शनसमुच्चय नामके छोटे-से शास्त्रका प्रारम्भ करते हुए उस शास्त्रके आरम्भमें मंगल और अभिधेयका साक्षात् शब्दों-द्वारा प्रतिपादन करने के लिए तथा सम्बन्ध और प्रयोजनकी परम्परासे सूचना देनेके लिए प्रथम श्लोक कहते हैं
सद्दर्शन स्याद्वाद देशक श्री वीर जिनको नमस्कार करके समस्त दर्शनोंके प्रतिपाद्य अर्थका संक्षेपसे कथन करता हूँ॥१॥
६२. सद्दर्शन-जिसका दर्शन अर्थात् उपलब्धि अर्थात् केवल नामक ज्ञान सत् अर्थात् सदा विद्यमान या हम लोगोंके ज्ञानको अपेक्षा प्रशस्त है वह सद्दर्शन है। अथवा जिसका दर्शन अर्थात् केवल दर्शन और अवश्य तत्सहचारि होनेसे केवलज्ञान भी सत् अर्थात् प्रशस्त है वह सद्दर्शन सर्वदर्शी सर्वज्ञ । इस प्रकार 'सद्दर्शन' पदका केवलज्ञानी या सर्वदर्शी और सर्वज्ञ अर्थ करनेसे वर्धमान भगवान्के ज्ञानातिशयका सूचन होता है। अथवा, जिसका दर्शन अर्थात् जनदर्शन समस्त नरेन्द्र, असुरेन्द्र और देवेन्द्र आदिसे सत् अर्थात् पूजित है, वह सद्दर्शन । इस तरह सद्दर्शन पदके इस अर्थसे
१. ऐसी कथा प्रसिद्ध है कि-विप्र हरिभद्रकी यह प्रतिज्ञा थी कि 'मैं जिसके वचनोंका अर्थ नहीं समझ सकूगा उसीका शिष्य हो जाऊँगा । एक दिन उपाश्रयमें याकिनी महत्तरा नामकी साध्वी"चक्किदुगं हरि पणगं चक्कीण केसवो चक्की केसव चक्की केसव दुचक्की केसव चक्की य॥"-अर्थात् चक्रवर्ती और नारायणोंकी उत्पत्तिका क्रम इस प्रकार है-दो चक्रो, पाँच नारायण, पांच चक्रो, छठवां नारायण,
आंठवा चक्रो, सातवा नारायण, नवां चक्रो, आठवां नारायण, दसवां और ग्यारहवां चक्री, नवा नारायण और बारहवां चक्रो। यह गाथा पढ़ रही थी। इस चकारबहुल गाथाका अर्थ जब हरिभद्रकी समझमें नहीं आया तब वे अपनी प्रतिज्ञानुसार याकिनी महत्तराके पास गये और उन्हें अपना गुरु मानकर उनसे इस गाथाका अर्थ पूछा। आर्या संघके नियमानुसार हरिभद्रको आचार्य जिनभटके पास ले गयी । विप्र हरिभद्र आचार्य जिनभटके पास जैनी दीक्षा लेकर हरिभद्रसूरि हुए।
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