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________________ श्रीहरिभद्रसूरिविरचितः पड्दर्शनसमुच्चयः [ श्रीगुणरत्नसूरिकृततर्क रहस्यदीपिकया श्रीसोमतिलकसूरिकृतलघुवृत्त्या च समन्वितः । ] -:::: जयति विजितरागः केवलालोकशाली सुरपतिकृतसेवः श्रीमहावीरदेवः । यदसमस मयाब्धेश्चारुगाम्भीर्यं भाजः सकलनयसमूहा बिन्दुभावं भजन्ते ॥१॥ श्रीवीरः स जिनः श्रिये भवतु यत्स्याद्वाददावानले भस्मीभूत कुतर्ककाष्ठनिकरे 'तृण्यन्ति सर्वेऽप्यहो । संशीतिव्यवहारलुब्व्यतिकरानिष्ठाविरोधप्रमाबाधासंभव संकरप्रभृतयो दोषाः परे रोपिताः ॥२॥ वाग्देवी संविदे नः स्यात्सदा या सर्वदेहिनाम् । चिन्तितार्थान् पिपर्तीह कल्पवल्लीव सेविता ॥३॥ नत्वा निजगुरून् भक्त्या षड्दर्शनसमुच्चये । टीकां संक्षेपतः कुर्वे स्वान्योपकृतिहेतवे ॥४॥ -$१. इह हि जगति गरीयश्चित्तवतां महतां परोपकारसंपादनमेव सर्वोत्तमा स्वार्थ संपत्तिरिति मत्वा परोपकारैकप्रवृत्तिसारश्चतुर्दशशत संख्यशास्त्रविरचनाजनितजगज्जन्तूपकारः श्रीजिन रागादि जीतने के कारण जो वीतराग हैं, जिनकी केवलज्ञानज्योति जगमगा रही है, जिनकी इन्द्रादिदेव सेवा करते हैं, तथा जिनके अनुपम अतिगम्भीर जिनशासनरूप समुद्र के समग्र नयसमूह बिन्दुमात्र हैं अर्थात् जिस प्रकार समुद्र अनन्त जल-बिन्दुओं को अपने में समा लेनेवाला आधार है, उसी तरह जिनका अनेकान्तशासन-समुद्र भी सभी दर्शनों को नयरूपसे अपने में समन्वित कर लेनेवाला है - वे महावीर देव जयवन्त हैं ||१|| जिनके समस्त कुतर्करूपी काष्टराशिको भस्मसात् करनेवाले स्याद्वाद दावानलमें परवादियों द्वारा दिये जानेवाले संशय, व्यवहारलोप, व्यतिकर, अनवस्था, विरोध, प्रमाबाध, असम्भव, संकर आदि दोष तिनकेके समान देखते-ही-देखते जल जाते हैं, वे तीर्थंकर श्री वीर हमारा कल्याण करें ||२|| जिसकी सम्यक् आराधना करनेसे जो कल्पलता के समान समस्त प्राणियोंके मनोरथ सदेव पूर्णं करती है वह श्रुतदेवता सरस्वती हमारे सम्यग्ज्ञान के लिए हो ||३|| मैं ( गुणरत्न ) अपने गुरुजनोंको नमस्कार करके अपने तथा अन्यके उपकार के लिए षड्दर्शनसमुच्चय की संक्षेपसे टीका करता हूँ ||४|| Jain Education International $ १. इस संसार में उदारचेता महापुरुषों का परोपकार-सम्पादन ही सर्वोत्तम स्वार्थ-सम्पादन है, यह मानकर जिन्होंने परोपकारको ही प्रवृत्तिमय जीवनका एक मात्र सार माना है, जिनने चौदह १. तृण्यान्ति प. १, २, भ. १, २ । २. स्तात् प. १, २, भ. १, २ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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