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________________ mammi २६८ षड्दर्शनसमुच्चये [का०४९.६२०६२०६. छायापि शिशिरत्वात् आप्यायकत्वात् जलवातादिवत् । 'छायाकारेण परिणम मानं प्रतिबिम्बमपि पौद्गलिकं साकारत्वात् । २०७. अथ कथं कठिनमादर्श प्रतिभिद्य मुखतो निर्गताः पुद्गलाः प्रतिबिम्बमाजिहत इति चेत् । उच्यते; तत्प्रतिभेदः कठिनशिलातलपरिनुतजलेनायस्पिण्डेऽग्निपुद्गलप्रवेशेन शरीरात्प्रस्वेदवारिलेशनिर्गमनेन च व्याख्येयः। २०८. आतपोऽपि द्रव्यं तापकत्वात्, स्वेदहेतुत्वात्, उष्णत्वात्, अग्निवत् । उद्योतश्च चन्द्रिकादिव्यं आह्लादकत्वात् जलवत्, प्रकाशकत्वात् अग्निवत् । तथा पारागादीनामनुष्णाशीत उद्योतः। अतो मूर्तद्रव्यविकारस्तमश्छायादिः इति सिद्धाः पुद्गलाः। इति सुस्थितमजीवतत्त्वम् । ६२०९. अथ पुण्यतत्त्वमभिधत्ते 'पुण्यं सत्कर्मपुद्गलाः' इति । पुण्यं सन्तस्तीर्थकरत्व. स्वर्गादिफलनिर्वर्तकत्वात्प्रशस्ताः कर्मणां पुद्गला जीवसंबद्धाः कर्मवर्गणाः ॥४८-४९॥ २१०. अथ पापास्त्रवतत्वे व्याख्याति $२०६. छाया भी पौद्गलिक है क्योंकि वह ठण्डी तथा शरीरका पोषण करके शान्तितरावट देती है जैसे कि गरमीके दिनों में अचानक चलनेवाली ठण्डी हवा। दर्पण आदिमें छाया रूपसे पड़ा हुआ प्रतिबिस्व भी पोद्गलिक है क्योंकि वह आकारवाला है। ६२०७. शंका-मुखसे निकलनेवाले छायापुद्गल अत्यन्त कठोर दर्पणको भेदकर प्रतिबिम्ब कैसे बन जाते हैं ? समाधान-जिस प्रकार किसी पत्थरकी बड़ी शिलापर पानी टपकनेसे उसमें पानीके परमाणुओंका प्रवेश हो जाता है और वह उस शिलाको ठण्डा कर देते हैं तथा आगमें लोहेके गोलेको तपानेसे उसमें अग्निके परमाणु घुस जाते हैं और वे उसे आगकी तरह लाल और गरम बना देते हैं अथवा जिस तरह शरीरको भेदकर पसीना निकल आता है उसी तरह मुखके छायापुद्गल दर्पणमें घुस जाते हैं और प्रतिबिम्ब रूपसे परिणत हो जाते हैं । पुद्गलोंके परिणमनकी विचित्रताएं ही इसका एकमात्र सहज उत्तर है। ६२०८, आतप-धूप भी पुद्गल रूप है क्योंकि वह ताप देती है, पसीना लाती है तथा उष्ण होती है जैसे कि अग्नि । इसी तरह प्रकाश तथा चांदनी आदि भी पुद्गल रूप ही हैं क्योंकि ये जलकी तरह तरावट पहुंचाते हैं, इन्हें देखकर तबीयत उसी तरह ठण्डी और आनन्दित हो जाती है जिस प्रकार झरते हए शीतल झरनेको देखकर। ये प्रकाश करते हैं जैसे कि अग्नि । पद्मराग आदि मणियोंका प्रकाश अनुष्णाशीत-न ठण्डा और न गरम किन्तु सम-होता है। इस तरह अन्धकार और छाया आदिको मूर्त तथा पोद्गलिक समझ लेना चाहिए। इस तरह अजीव तत्त्वका व्याख्यान हुआ। ६२०९. अब पुण्यतत्त्वका निरूपण करते हैं-सत्-प्रशस्त कर्म पुद्गलोंको पुण्य कहते हैं। तीर्थंकर चक्रवर्ती स्वगं आदि प्रशस्त पदोंपर पहुंचानेवाले कर्मपुद्गल पुण्य कहलाते हैं। ये कर्म पुद्गल जीवसे सम्बद्ध रहते हैं ।।४८-४९।। ६२१०. अब पाप और आस्रव तत्त्वका व्याख्यान करते हैं १. द्रव्यं छायाद्यन्धकारः घटाद्यावारकत्वात् काण्डपटादिवत् । गतिमत्त्वाच्चासौ वाणादिमद्व्यम् । --न्यायकुमु.प. ६७१। २.-कारे परि-म.। "आतपः उष्णप्रकाशलक्षणः।" -त. वा. ५।२४ । ३. "उद्योतश्चन्द्रमणिखद्योतादिविषयः ।"-त. वा. ५।२४ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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